‘‘भारतीयता के पूरक हैं समरसता और समानता’’
समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में 49 वीं समुत्कर्ष विचार गोष्ठी ‘‘भारत में समरसता और समानता’’ का आयोजन फतह स्कूल में किया गया । इस बार की गोष्ठी समिति द्वारा अप्रैल 2014 से सतत रूप से आयोजित गोष्ठियों के सफलतापूर्वक 4 वर्ष पूर्ण होने के उत्साह में संपन्न हुई।
देश की एकता, अखण्डता एवं समरसता निर्माण में यहाँ के संतां का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है।
समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकेगी। समाज में समरसता किसी विभाजन से नही आती अपितु उनके साथ रोटीदृबेटी का संबंध रखने से आती है। माधव सदाशिव गोलवलकर ‘श्री गुरू जी’ के इस कथन से विषय का निरूपण समुत्कर्ष पत्रिका के सम्पादक रामेश्वर प्रसाद शर्मा ने किया।
प्राधानाचार्य जसवन्त राय ने कहा कि भारतीय मान्यताओं में आज जो हम जाति का रूप देखते है कि ब्राह्मण की संतान ब्राह्मण व शूद्र की संतान शूद्र ही होगी वास्तव में यह मात्र एक सामाजिक विकृति और बुराई हैं। समाज की इसी विकृति और बुराई को जन्मना वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है जिसकी आलोचना चहुँ ओर होती है, जो कि सर्वथा उचित ही है।
विश्व के सभी मानवों की आकृति एक जैसी होने के कारण सभी मनुष्य एक ही जाति के हैं, भले ही जलवायु, स्थान इत्यादि के कारण कुछ भिन्नता दिखाई दे। सांख्य दर्शनाचार्य महर्षि कपिल के अनुसार दृ मनुर्ष्यैंक विधिः, अर्थात् सभी मनुष्य एक प्रकार या एक जाति के ही हैं। अतः विश्व के काले, गोरे, सभी मतावलंबी एक ही जाति अर्थात् मानव जाति के ही हैं।
डॉ. नरेन्द्र टांक ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त फैले इस भारत देश की जलवायु यहां के पुरखें-पूर्वजों का विचार, कार्यकलाप, यहां की वेशभूषा, खान-पान, आचार-विचार ने जिस सुगंध को अपने में समेटा है तथा यहां की सन्तानों को जो सुगन्ध प्रदान की है,
वह सुगन्ध ही हिन्दू संस्कृति है, जो प्रत्येक हिन्दू में विद्यमान है। हिन्दू को समरसता सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। वह इसका मोहताज भी नहीं है। इस राष्ट्र को चिरंजीवी एवं शक्तिशाली रूप में देखना है तो हर व्यक्ति को इस संस्कृति के सनातन विचार को अपने आचरण में लाना होगा।
विषय को स्पष्ट करते हुए हरिदत्त शर्मा ने कहा कि जिस दिन से भारतीय समाज में जन्मना वर्ण-व्यवस्था ने अपनी जडे गहरी की और समाज में अस्पृश्यता जैसी कई प्रकार की कुरीतियों ने जन्म लिया और उनके बीच परस्पर आदान-प्रदान बन्द हुआ जिससे समाज में परस्पर ‘भेद’ की खाई गहरी होती गई, उसी दिन भारत के दुर्भाग्य का जन्म हुआ। समाज में व्यापत इस प्रकार की सभी कुरीतियों को आसानी से मिटाया भी
जा सकता है क्योंकि ये सभी कुरीतियाँ अस्थायी और कुछ व्यक्ति-विशेष के स्वार्थ से ही ओतप्रोत हैं। इसलिए तन्द्रा में पड़ी अपने अतीत की कीर्ति और स्वत्व को बिसरी हुई जनता में नवजीवन का संचार तभी हो सकता है जब वह अपने अतीत के गौरव की ओर जाना शुरू कर दे। जिस प्रकार जलते हुए बिजली के बल्ब के ऊपर धूल जमने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह बल्ब अपर्याप्त रोशनी दे रहा है, और धूल के साफ होते ही वह बल्ब पर्याप्त रोशनी से जगमगाता हुआ हमें प्रतीत होता है। ठीक उसी प्रकार हमारे भारतवर्ष की जनता है। एक बार इन्हें अपने स्वर्णिम इतिहास के स्वत्व से इनका साक्षात्कार हो जाये तो विश्व-कल्याण और पूरी वसुधा को परिवार मानने वाली यह भारतीय संस्कृति अपनी भारतमाता को पुनः उसी सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा देगी जहाँ कभी वह आरूढ़ थी। बस भारतीय समाज की आत्मा को झकोरने भर की देर है।
संचालन करते हुए संदीप आमेटा ने कहा कि पिछले हजार-डेढ़ हजार वर्षों से समाज में आई कुरीतियों को दूर करके एक समरसतापूर्ण जीवन, सबके प्रति आत्मीयता रखने वाला जीवन हमारे समाज में फिर से दिखाई दे। हर प्रकार का जातिभेद समाप्त हो जाए। एक रस, एकात्म, आत्मीयता के बोध वाले को एक सरल-सा शब्द दिया है-समरस जीवन। भवानीशंकर ने कहा कि ‘‘डॉ. अम्बेडकर हमेशा कहा करते थे कि शिक्षा प्राप्त कर योग्य बनो और संघर्ष करो’’। नई पीढ़ी को उनकी यह शिक्षा याद रखनी होगी। उन्होंने कहा कि डॉ आंबेडकर का स्पष्ट मत था कि भारत में केवल भौगोलिक एकता ही नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक एकता भी है। उन्होंने भारत को एक रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सामाजिक आंदोलन को संतुलित ढंग से चलाया।
गोष्ठी में श्याम सुंदर चौबीसा,प्रतिमा सामर,दिलीप जैन ने भी अपने विचार व्यक्त किये । इस अवसर पर प्रकाश आमेटा, ललित जैन, गिरीश चौबीसा, संगीत भावसार, राकेश शर्मा, मुकेश जैन, गोपाल माली, पुष्कर माली आदि उपस्थित थे।
लोकेश जोशी
विचार गोष्ठी संयोजक