सहिष्णुता यानी एक पक्ष द्वारा अपने से भिन्न पक्षों के विचार सुने या समझे बिना ही न सिर्फ उन्हें खारिज करना, बल्कि उनकी उपस्थिति को सहन करने से भी इन्कार कर देना। अगर हम असहिष्णुता के उद्भव के पीछे के कारणों का विवेचना करें तो पाएंगे कि किसी भी समाज में विविध प्रकार के ‘शक्ति केन्द्रों’ (विभिन्न संस्थाओं, संगठनों एवं राजनीतिक दलों) का अस्तित्व होता है। चूँकि ये संरचनाएँ अपने से भिन्न विचारों, शोधों एवं ज्ञान के रूपों को सहन नहीं करना चाहतीं, इसीलिये ये समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्तियों पर अकुंश लगाकर आलोचनात्मक जनचेतना के विकास में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करती हैं। यही प्रयास स्थूल रूप में असहिष्णुता के रूप में सामने आते हैं।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध जब कह रहे थे कि ‘‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब,’’ तब शायद उन्हें भान रहा होगा कि धीरे-धीरे भारतीय समाज अपने भीतर अनेक तरह के मठों एवं गढ़ों को सृजित करता जा रहा है। ये मठ और गढ़ राज-सत्ता, सांप्रदायिक गढ़, जातिवादी गढ़ जैसे ढांचों को सृजित करते रहे हैं, जो हमारी अभिव्यक्तियों पर अनेक अंकुश लगा रहे हैं। सांप्रदायिक, जातिवादी एवं क्षेत्रवादी चेतना अपने विचार एवं सोच से किसी भी तरह के भिन्न विचारों, शोधों एवं ज्ञान के रूप को सहन नहीं करना चाहती है। विभिन्नता, बहुलता एवं अनेक तरह के वाद-विवाद एवं संवाद को, जो भारतीय समाज की आंतरिक शक्ति रही है, यह खत्म कर देना चाहती है। चिंतनीय है कि धीरे-धीरे यह रूढ़िवादी चेतना, फासीवादी, अधिनायकवादी स्वरूप ग्रहण कर हिंसक रूप लेती जा रही है।
क्या सचमुच असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि इसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बना कर विश्व भर में देश की बढ़ती प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई जाए? सहिष्णुता का पैमाना राजनीति नहीं अपितु सामाजिक धरातल पर भिन्न मतावलंबियों के बीच परस्पर मेलजोल का स्तर ही हो सकता है। बेशक कुछ गैरजिम्मेवार राजनीतिक नेताओं ने भड़कीले बयान देकर साम्प्रदायिक एकता को भंग करने का दुष्प्रयास किया है। अगर किसी की भर्त्सना होनी चाहिए तो उनकी होनी चाहिए फिर वह चाहे कोई भी क्यों न हो। लेकिन देश के वर्तमान नेतृत्व को दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो समाज को टुकड़ों में बाँट कर देखने की बजाए समानता के व्यवहार को सुनिश्चित करने के लिए जुटा हुआ प्रतीत होता है। उसने वोट बैंक नष्ट करने में सफलता पाई है। इंसानों को इंसान और भारतीयों को सिर्फ भारतीय मान कर सबको विकास में भागीदार बनाने के लिए संकल्पबद्ध है। समाज सिर्फ एकसमान विचारों एवं रुचियों वाले व्यक्तियों से ही मिलकर नहीं बनता है, बल्कि उसमें विचार, खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में विविधता वाले लोगों का समायोजन होता है। यह विविधता समाज की समस्या नहीं अपितु सैंकड़ों वर्षों की गौरवमयी विकास यात्रा का जीवंत दस्तावेज होती है, जिसमें परस्पर भिन्न सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के बीच तमाम मतभेदों के बावजूद सह-अस्तित्व की परंपरा पनपती है और अन्तर-सांस्कृतिक मेलजोल से समाज और भी समृद्ध बनता है।
खान-पान की मत भिन्नता से लेकर पहनावे की, भाषा की, भाषण की, लेखन की, अपने प्रतिद्वन्द्वी की प्रगति का विरोध भारतीय समाज में विकसित हो रही इन्हीं ‘असहिष्णुता’ का प्रतीक मात्र है। इन प्रवृत्तियों के कारण बन रहे माहौल में न हम अपने मन की बात से भिन्न कुछ सुनना चाहते हैं, न कुछ समझना चाहते हैं। विवेकानन्द और तिलक ने भारतीय समाज एवं राज्य में विभिन्नता एवं बहुलता के सम्मान का जो सामाजिक पर्यावरण तथा राज्य की सांस्कृतिक नैतिकता विकसित की थी। यह एक भिन्न सामाजिक राजनीति का आगाज है, जिसमें बोलने, सोचने एवं विचार करने की छूट घातक होती जाएगी। पिछले 6 दशकों में जिस प्रकार विगत शासक वर्ग ने समाज को एकता के सूत्र में बाँधने की बजाए अल्पसंख्यक राजनीति का स्वार्थपूर्ण खेल खेला है देश उसके दुष्प्रभावों को भोग रहा है। देश में बढ़ती असहिष्णुता का परिवेश भी उसका प्रतिफल मात्र है। मुसलमानों को शेष समाज से अलग थलग रखने का काम उसने उन्हें वोट बैंक बना कर किया। उनके थोथे तुष्टीकरण की प्रक्रिया में उन्हें दिग्भ्रमित किया। उन्हें मात्र अपनी वोट के मोहरे माना। जातीय आधार पर आरक्षण देकर भी समाज को बांटे रखा। जातीय भेदभाव को समाप्त करने के स्थान पर विलगता भाव और पुष्ट होता चला गया। अब समानता का वास्तविक स्वरूप देने के प्रयासों को गलत ढंग से लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर कुछ लोग अपने खोए आधार को पुनः कायम करना चाहते हैं। इसमें मात्र उनका स्वार्थ निहित है। ये सभी कारक असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं।
बढ़ती असहिष्णुता राष्ट्र के अंदर चल रहे राजनीतिक विमर्श में भी भटकाव पैदा करती है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में जहाँ गरीबी, बढ़ती जनसंख्या और भूख इत्यादि राष्ट्रीय चिंता एवं चर्चा के विषय होने चाहियें, वहाँ छींटाक्यी राष्ट्रीय चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनकर उभर रहे हैं। इससे दीर्घकाल में राष्ट्र की विकास यात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे अंततः समाज में वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील सोच को विकसित करने की कोशिशों को भी धक्का लगता है।
अस्मिता चाहे जातीय हो, क्षेत्रीय एवं धार्मिक, अपने प्रारंभ में तो वे सामाजिक समूहों को पहचान दिलाती है, पर कुछ समय बाद अस्मिताओं की वही पहचान रूढ़ हो जाती है और हर क्षण बदलते जाने वाले पहचानों के विकास को अवरुद्ध कर देती है। लिहाजा हमें देखना होगा कि असहिष्णुता, भय एवं असंयम की चेतना समाज के आधार तलों में पहुंचकर कहीं हमारे समाज वृक्ष की जड़ों को कुतर न दे। देश की प्रबुद्ध जनता को चाहिए कि गलत और सही के बीच के अंतर को पहचाने और भ्रम का शिकार न बने। आने वाला समय कड़ी परीक्षा का समय होने वाला है। देश प्रगति पथ पर तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है। साथ ही वैश्विक आतंकवाद के खूनी दरिंदों को रोकने के लिए विश्व तैयारी में जुट रहा है। भारत को उसमें भी अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्पर रहना होगा। ऐसे वक्त पर देश में एकता और परस्पर सद्भाव के साथ साथ देश रक्षा का भार सबको साँझा करने की आवश्यकता है। हम सब सम्भलें और जो अपना है उसकी रक्षा करें। साथ ही आलोचनात्मक शक्तियों वाले चिंतनशील समाज को, खुद को जगाते हुए औरों में भी ऐसी प्रवृत्तियों के प्रति सजगता विकसित करनी होगी। देश भर में एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता दिखाना न तो इस जमीन की संस्कृति है और न ही इसके इतिहास का एक दस्तूर। तो समय की मांग यही है कि व्यक्ति और समाज में सहिष्णुता बरकरार रहे।