सम्यक संवाद की भारत में एक सुदीर्घ परंपरा रही है। जब से असहिष्णुता हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में घर करने लगी है और हममें उदारता की भावना क्षीण होने लगी है और तभी से हम संवाद से संवादहीनता की ओर बढ़ने लगे हैं। आज व्यक्ति एवम् समाज की अनेक समस्याओं का समाधान तो संवाद में निहित है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार गति ही जीवन है और जड़ता मृत्यु। संवाद समाज में सापेक्ष प्रक्रिया है। संवाद मानवीय जीवन की संज्ञानात्मक प्रक्रिया है। इसमें सार्थक अनुभवों, व्यवहारों, आवश्यकताओं का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है। संवाद की सार्थकता केवल अपने संदर्भ और प्रसंग के अनुसार सही भावना या विचार अपने दर्शक में उत्पन्न कर देने की होती है। ये ही चरित्र का स्वभाव और दी हुई परिस्थिति में उसकी प्रतिक्रिया निर्धारित करते हैं।
भारतीय दर्शन का मूल तत्व है विचार मंथन। स्वस्थ चर्चा और रचनात्मक संवाद ने इस महान राष्ट्र की प्रगति में एक बड़ी भूमिका निभाई है। हमारी मनीषा की विशिष्टता है, ज्ञान वितरित करने की अनूठी परंपरा। यह न तो इकतरफा सम्बन्ध है, और न ही दोतरफा। भारतीय संवाद की प्रकृति और प्रवृत्ति हमेशा बहुमुखी रही है। इसमें पूरा समाज सहभागी होता है, इतना ही नहीं तो, प्रकृति का भी ध्यान रखा जाता है। इसलिए संवाद की हमारी शैली व्यापक है। संवाद कौशल की कमी के कारण कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था। चार सी (ब्) स्पष्टता (क्लेरिटी), विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी), आचरण (कंडक्ट), चरित्र (करेक्टर) के माध्यम से संवाद को बेहतर बनाया जा सकता है।
किसी ने सही कहा है –
परस्पर संवाद करो, वार्तालाप करो,
पर अपनी बात मनवाने के लिए
शक्ति, बल, धूर्तता, लालच व चालाकी
का प्रयोग तो कोई अच्छा न मानेगा।
आओ परस्पर वार्तालाप करें,
एक नया भारत और एक नया विश्व बनाएं
आओ एक बेहतर विश्व बनाएं!
व्यावहारिक व सामाजिक जीवन में आपसी संवाद का महत्व निर्विवाद है। निजी जीवन में सफलता हासिल करने का एक गुण संवाद कला में पारंगत होना है। संवाद गुरुत्वाकर्षण है। संवादहीनता संदेह की खाई है। वह बढ़ती ही जाती है। इसे पाटने के लिए किसी बड़े से बड़े को छोटा बनना पड़ता है। झुकने वाला बड़ा हो जाता है। बड़े का झुकना क्षमादान का ही दूसरा नाम है।
संवाद को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा जाता है जो कि व्यक्ति विशेष एवं समूह में ज्ञानोपार्जन एवं परिवर्तन उत्पन्न करता है। ऐसा परिवर्तन रचनात्मक अभ्यास के महत्वपूर्ण सिद्धांत को समझने, परिवर्तनशील विचार करने की निपुणता विकसित करने के लिए एवं सहयोगात्मक वातावरण के निर्माण के लिए संगत है, जो कि शिक्षा एवं ज्ञानोपार्जन में सुधार के लिए व सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए आवश्यक है।
सच तो यह है कि संबंधों का सूत्रपात ही संवाद से होता है। संवाद सुख-दुःख की पड़ताल करके उचित मार्गदर्शन करता है। संवाद की सार्थकता के लिए एक व्यक्ति को कुछ झुकना पड़ता है, जिसे देखकर सामने वाले के मन में भी विनम्रता स्वाभाविक रूप से आ जाती है। संवादहीनता अकारण बढ़ती है। कभी-कभी यह प्रतिशोध की आग लगाती है। कारण के बगैर कार्य होना मूढ़ता की श्रेणी में गिना जाता है। क्रिया के बाद उसकी प्रतिक्रिया सामान्य बात है। सहनशीलता कहीं-कहीं दिखाई पड़ती है।
पारिवारिक-वैयक्तिक संबंधों में अगर संवाद ही नहीं रहेगा तो फिर उनमें ‘साथ’ के क्या मायने रह जाएंगे? एक दूजे के मन की सुने-समझे बिना एक छत के नीचे रहना औपचारिकता भर हो जाएगा। इसलिए मॉडर्न लाइफस्टाइल के नाम पर ना तो आपस में कुछ कहना बंद कीजिए और ना ही पूछना। सवाल-जवाब की यह डोर ही तो अपनों को बांधे रखती है। इस डोर का टूटना साथ रहते हुए भी साथ छूट जाने जैसा है। कहने-सुनने, पूछने, बताने के इस भाव में ‘फिक्र’ भी छुपी है और एक-दूजे की सलामती चाहने की सोच भी।
संवादहीनता के कारण कोई भी मुद्दा तिल का ताड़ बन सकता है। अदूरदर्शिता संवाद घटाती है। संवादहीनता परस्पर दोष खोजने के लिए विवश करती है, जबकि संवाद दोषमुक्त रखता है। संवाद यथार्थ से मुंह न चुराकर वास्तविकता का ज्ञान कराता है। संघर्ष करने पर समस्या का निदान निकलता है। संवादहीनता पीठ दिखाकर सत्य से दूर करती है। अपनी बात दूसरे पर लादकर दूसरे की बात न सुनने का भ्रम पालती है। व्यक्ति से लेकर विभिन्न राष्ट्रों के बीच संघर्ष की जो स्थिति है, उसका एक प्रमुख बुनियादी कारण संवादहीनता ही है।
जहाँ स्वस्थ संवाद भ्रमों व संदेहों का निवारण करता है और जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है वहीं संवाद के अभाव से वैचारिक संकीर्णता घर करती जा रही है। बढ़ती वैचारिक संकीर्णता व जड़ता परस्पर लड़ाई-झगड़े का कारण है। संवाद का स्तर गिरने से समाज में अशांति का वातावरण बनता है। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। यही संदेह आगे चलकर भयंकर विनाश व त्रासदी का कारण बनता है। समाज के हर वर्ग में परस्पर बातचीत की प्रक्रिया सिकुड़ गई है। ऐसे में हम न केवल अपने सुख को बांटने से वंचित रह जाते हैं, बल्कि अपना दुख भी नहीं बांट पाते। सुख बांटने के लिए कोई न भी मिले तो भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दुख बांटने के लिए यदि कोई न मिले तो जीवन हताशा व अवसादग्रस्तता की ओर बढ़ता जाता है।
अगर संवाद कायम किया जाए तो व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्रों के मध्य मतभेद खत्म हो सकते हैं। हमें संवादहीनता की स्थिति को खत्म कर पारस्परिक संवाद कायम करना चाहिए। संवाद की पहल से कोई छोटा नहीं हो जाता, बल्कि यह तो एक तरह से बड़प्पन की निशानी होती है। आवश्यक है इसे रचनात्मक, विवेकवान और चिंतनशील बनाना। यह पारस्परिक संवाद के बिना संभव नहीं है, इसलिए आज संवाद की और भी अधिक जरूरत है।