जो लोग सोचते हैं कि चीन बहुत ताकतवर बन गया है, उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि चीनी आबादी आज भी आम अमेरिकी नागरिक के मुकाबले 55 फीसदी कम औसत आय पर बसर कर रही है। जो लोग इस देश की भौतिक समृद्धि की तुलना अमेरिका से करते हैं, उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि अमेरिका इतना खुला देश है कि वहाँ पुलिस का एक आला अधिकारी अपने राष्ट्रपति को मुँह बंद करने की नसीहत सार्वजनिक तौर पर दे सकता है, जबकि चीन में बंद कमरे की असहमति भी जानलेवा साबित हो सकती है। इसके बावजूद नई पीढ़ी शी जिनपिंग से कई मुद्दों पर जवाबदेही चाहती है। घबराए शी उन्हें भटकाने के लिए सीमाएँ गरमा रहे हैं, ताकि ध्यान बँटाया जा सके और जरूरत पड़ने पर विरोधियों पर प्रहार किया जा सके। दुनियां के तानाशाहों का यह पुराना टोटका है।
क्या हम तीसरे महायुद्ध की ओर बढ़ रहे हैं। यह सच है कि चीन की आक्रामक महत्वाकांक्षाओं ने दुनिया की कूटनीति को उलट-पुलटकर रख दिया है। भारत, ताइवान, वियतनाम और जापान से तो उसके हमेशा खट्टे-मीठे रिश्ते रहे हैं और आस्ट्रेलिया ऐसा देश है, जो कदापि युद्ध-पिपासु नहीं है, फिर भी उसे चीन से इतनी आशंका?
चीन के अति-अभिलाषी नेता शी जिनपिंग ने जिस उद्धत राष्ट्रवाद को अपनाया है, वह खुद उनके देश के लिए भी अच्छा नहीं है। कुछ दिनों पहले तक कनाडा, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, और जर्मनी सहित तमाम देश अमेरिका के साथ चीन से भी बराबर की दोस्ती बनाने में रुचि ले रहे थे, पर हालात ने तेजी से पलटा खाया है।
हांगकांग और शिंजियांग के दमन, कोविड-19 और उसकी सागर-नीति की वजह से दुनिया बीजिंग के प्रति शंकालु हो चली है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जाॅनसन ने पिछले दिनों अपनी संसद में बाकायदा चीन के खिलाफ बयान दिया और हांगकांग के आंदोलनरत नागरिकों के साथ एकजुटता दिखाई। उन्होंने तो हांगकांग के 30 लाख लोगों को ब्रिटिश नागरिकता देने तक का प्रस्ताव किया है।
उधर अमेरिका ने भी हांगकांग के मसले पर चीन की नकेल कसने वाला एक विधेयक पारित किया है। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में सर्वसम्मति से पास ‘हांगकांग आटोनाॅमी ऐक्ट’ के जरिए उन बैंकों पर भारी जुर्माना व प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है, जो हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों के दमन में शामिल अफसरों के साथ कोई ‘बिजनेस’ करेंगे। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल इससे पहले ही बीजिंग को चेता चुकी थीं।
फ्रांस और जापान ने भी गलवान की घटना के बाद भारत के प्रति समर्थन जाहिर किया है। कनाडा के जस्टिन ट्रूडो बीजिंग के समर्थक माने जाते हैं, पर देश में उनके खिलाफ वातावरण बनने लगा है। जो कनाडाई पहले चीन को उभरती हुई महाशक्ति मानते थे, वे भी उसके रवैये से हतप्रभ हैं। एक सर्वे में वहाँ चीन की लोकप्रियता में 20 फीसदी से अधिक की गिरावट दिखाई गई है।
अब आते हैं चीन की कंपनियों पर। यह सोचना गलत है कि 5जी से संपन्न हुवेई अथवा अन्य चीनी काॅरपोरेट सरकार की मदद से रियायतें बाँटकर हमेशा प्रतिस्पद्र्धा में बने रहेंगे। हुवेई और चीन में बने साजो-सामान पर शक की नजरें उठने लगी हैं। इस बदली हुई दुनिया में, जहाँ डाटा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, चीनी डिजिटल कंपनियाँ आपके डाटा से अपना कैसा हित साध रही हैं, इसका खुलासा अभी बाकी है। भारत ने इसी तर्क के आधार पर अब तक 106 चीनी एप प्रतिबंधित किए हैं। चीन की कंपनियां कई ठेकों से भी वंचित हो गई हैं। अगर यह सिलसिला धरती के कुछ और हिस्सों में जोर पकड़ता है, तो यकीनन बीजिंग को अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पडेगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस घेरेबंदी को एक आंदोलन बनाना चाहते हैं। अगले चुनाव में उन्हें चुनौती देने जा रहे जो बिडेन भी इसी नीति का वादा कर रहे हैं। निहितार्थ साफ है कि एक तरफ ताकतवर पश्चिमी देश व एशिया में चीन से सशंकित देश होंगे और दूसरी तरफ, उससे उत्पन्न लातिन अमेरिकी, अफ्रीकी, छोटे एशियाई व पूर्वी यूरोप के देश। यह स्थिति तब बनेगी, जब चीन रूस के साथ मिलकर दूसरे शीतयुद्ध की प्रस्तावना मजबूती से लिख सके।