पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी से आती खबरें सुखद हैं। चीन की सेना कई वजहों से पीछे लौटने को मजबूर हुई है। पहला कारण तो निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल है। उन्होंने हालात से निपटने के लिए दोतरफा रणनीति अपनाई। एक तरफ, उन्होंने सेना का मनोबल बढ़ाया और उसके लिए आधुनिक साजो-सामान जुटाए, तो वहीं दूसरी तरफ, लेह-लद्दाख जाकर पड़ोसी देश को यह संदेश दिया कि शीर्ष स्तर पर बनी सहमति जमीन पर उतारी जाए, तो वह दोस्ती के लिए भी तैयार हैं। इसके बाद ही अजीत डोभाल को सक्रिय किया गया, जो चीन के मामलों में प्रधानमंत्री के निजी प्रतिनिधि रहे हैं।
यह सही है कि कई बार युद्ध आवश्यक हो जाता है, पर किसी भी राष्ट्र के लिए यह एकमात्र विकल्प नहीं होना चाहिए। इससे बचने के लिए अपनी आंतरिक शक्तियों को मजबूत करना आवश्यक है। भारत ने भी यही किया। हमने आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाए, साथ ही वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपना योगदान बढ़ाना शुरू किया। एक बड़ा उपभोक्ता बाजार हमारे हित में है ही। लिहाजा, चीन को आर्थिक चोट पहुँचाने की शुरुआत हुई। फिर तो, अन्य देश भी खुलकर हमारे साथ आ गए और बीजिंग की आलोचना करने लगे, जबकि शुरुआत में इन देशों ने 20 भारतीय सैनिकों के बलिदान पर महज शोक जताया था।
हालाँकि, चीनी नेतृत्व की भी तारीफ करनी चाहिए। उसने सही समय पर अपने कदम पीछे खींचे हैं। बीजिंग ने यह फैसला तब किया, जब वहाँ का मीडिया बार-बार 1962 के संघर्ष की याद दिला रहा था और कूटनीतिज्ञ पाकिस्तान और नेपाल के रास्ते नई दिल्ली को घेरने की रणनीति बनाने में मशगूल थे। मगर भारत सरकार ने आपसी मतभेद खत्म कराने में आखिरकार सफलता हासिल कर ली।
अब सवाल यह है कि आगे की क्या रणनीति बनाई जाए? एक आशंका यह भी है कि कहीं 1962 तो नहीं दोहराया जा रहा, क्योंकि उस वर्ष भी पीछे लौटकर चीन ने हम पर हमला बोला था? मगर इस बार स्थिति बदली है। हमने इस बार चीन की आंखों में आंखें डालकर उसे पीछे हटने को मजबूर किया है। फिर भी, हमें सजग और सावधान रहना होगा।
हमारा फायदा इसी में है कि सेना को बैरकों में रहने दिया जाए। सीमा पर बेवजह की उसकी तैनाती भय का माहौल बनाएगी।
ऐसे संदेश कितने खतरनाक होते हैं, इसका पता पहले और दूसरे विश्व युद्ध से चलता है। इन दोनों महासमर की शुरुआत तब हुई, जब एक पक्ष को दूसरा कमजोर महसूस होने लगा। जब ऐसी सोच हावी हो जाती है, तो फिर संघर्ष स्वाभाविक तौर पर पैदा हो जाता है। ईरान-इराक युद्ध का भी यही संदेश है। अच्छी बात है कि इस बार भारत धारणा की जंग में मजबूत होकर उभरा है। पिछले पाँच-छह वर्षों में हमने न सिर्फ पड़ोसी देशों के तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए सीमावर्ती क्षेत्रों में विकास-कार्य किए हैं, बल्कि उनकी उकसाने वाली कार्रवाइयों को उसी की भाषा में जवाब भी दिया है।
मौजूदा तनातनी का अंत एक नई उम्मीद को जन्म दे रहा है। हम बीजिंग को यह एहसास दिलाने में सफल हुए हैं कि विश्व के आर्थिक विकास में अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटना उचित नहीं। एशिया की शांति भी हमारी दोस्ती पर ही निर्भर है। इसमें हम कितना सफल हो पाते हैं, इसका जवाब तो आने वाले दिनों में मिलेगा, पर विश्व में सकारात्मक योगदान की हमारी उम्मीदें कुछ जरूरी काम करने के बाद पूरी हो सकती हैं।
चीन का इन देशों के प्रति बदलता रुख हमें कई संदेश दे सकता है। अगर बदलाव सकारात्मक आते हैं, तो यह माना जा सकता है कि चीन का नेतृत्व नई सोच का हिमायती है। और अगर ऐसा नहीं होता, तो हमें सावधान रहना होगा, क्योंकि गलवान घाटी में पीछे हटना चीन का छलावा भी हो सकता है।
चीन के भीतरी हालात पर भी हमें नजर रखनी होगी। ऐसी चर्चा गरम है कि बीजिंग के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व में मतभेद गहरा रहे हैं। चीन बेशक कम्युनिस्ट समाज है, पर वहां कन्फ्यूशियसवाद हावी है। इस तरह के समाज में अच्छे काम करने वालों की तारीफ होती है, तो विफल होने पर उसकी जमकर लानत-मलामत भी की जाती है। लिहाजा, अपनी छवि चमकाने के लिए सियासी और सैन्य नेतृत्व अलग-अलग राह पकड़ सकते हैं। जरूरी यह भी है कि हम भी अपने आंतरिक मतभेदों से ऊपर उठें। पहले पाकिस्तान जैसे देश हमारे मनमुटावों का फायदा उठाते थे, अब बीजिंग इससे लाभ कमाना चाहता है। उसे यह मौका नहीं मिलना चाहिए।
इसमें आत्मनिर्भरता की नीति हमारे लिए काफी कारगर साबित हो सकती है, मगर इसे लेकर हमें संकीर्ण नजरिया नहीं रखना चाहिए। हमारी आत्मनिर्भरता संरक्षणवाद का पोषक नहीं बननी चाहिए। ऐसी नीति हमारी कई कमजोरियों को बेपरदा कर सकती है। इससे हम पर कई तरह के दबाव बनने लगेंगे, जिनसे हमारे हितों को चोट पहुँच सकती है।
(साभार: शशांक, पूर्व विदेश सचिव की पोस्ट से)