दीपावली जन-मन की प्रसन्नता, हर्षोल्लास एवं श्री-सम्पन्नता की कामना के महापर्व के रूप में मनाया जाता है। सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक आदि समस्त उदात्त भावनाओं की दृष्टि से दीपावली का पर्व राष्ट्रीय त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है। कार्तिक अमावस्या की काली रात्रि को जब घर-घर दीपकों की पंक्ति जल उठती है तो वह पूर्णिमा से अधिक उजियारी होकर ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ को साकार कर देती है। यह पर्व एक दिवसीय न होकर पंचदिवसीय है, जो कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक बड़े हर्षोल्लास से सम्पन्न होता है।
दीपावली दीपों का पर्व है। भिन्न-भिन्न मान्यताओं एवं अंतर कथाओं के होते हुए भी दीपावली के पर्व को भारत के सभी लोग समान रूप से मनाते हैं, अतः यह पर्व समता एवं एकता का परिचायक भी है। भारत वर्ष में दीपावली को मनाने का सबसे प्रचलित जनश्रुति भगवान श्रीराम से जुड़ी है। जिसमें माना जाता है कि आदर्श पुरुष श्रीराम जब लंका विजय के बाद माता सीता सहित अयोध्या लौटे तो अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत के लिए अपने-अपने घरों की साफ-सफाईकर सजाया और अमावस्या की रात्रि में दीपों की पंक्ति जलाकर उसे पूर्णिमा मेंबदल दिया। जिससे यह प्रथा दीपों के पर्व के रूप में मनाई जाने लगी।
दीपावली को कई महान् तथा पूज्य महापुरुषों के जीवन से सम्बद्ध प्रेरणाप्रद घटनाओं के स्मृति पर्व के रूप में भी याद किया जाता है।
कहा जाता है कि इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ भी सम्पन्न हुआ था। राजा विक्रमादित्य भी इसी दिन सिंहासन पर बैठे थे। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती, जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी तथा सर्वोदयी नेता आचार्य विनोबा भावे का स्वर्गारोहरण का भी यही दिवस है। सिक्खों के छठवें गुरु हरगोविन्द जी को भी इसी दिन कारावास से मुक्ति मिली। वेदान्त के विद्वान स्वामी रामतीर्थ का जन्म, ज्ञान प्राप्ति तथा निर्वाण, तीनों इसी दिन हुए थे।
दीपावली के निहितार्थ
दीपावली नए निर्माण के संकल्प को धारण करने का पर्व है। इस दिन घर- घर जलाए जाने वाले दीपक मिट्टी और उजास का संयोग है। मिट्टी, सृजन की सम्भावना है और प्रकाश इस सम्भावनाको परिणाम में बदल देने का संकल्प। हमारे पूर्वजों के लिए दीपावली पर दीप प्रज्वलन का यही अर्थ था कि वे आने वाले समय में सम्भावनाओं को परिणाममें बदलने के लिए कटिबद्ध हों। लेकिन हमने दीपावली की व्यंजना में जाना का उपक्रम नहीं किया। उसे केवल कृत्रिम रोशनी करने तक सीमित कर दिया जबकि सच्चा उजाला तो संसार को पहचानने की सामथ्र्य देता है, खोए हुए को प्रकाशित करता है, यात्रा की निरंतरता खण्डित न हो इसकी आश्वस्ति देता है।
दीपावली अंधकार के आलोक में परिवर्तन का पर्व है। दीपावली पर दीप का प्रज्वलन केवल एक रीत भर नहीं है, केवल बाहरी क्रिया नहीं है, यह आंतरिक अनुष्ठान है, स्वयं को दीप्त करने का। आत्मदीप बनने का। हम बिना दीप्ति के बिना, जीवट की लौ के मिट्टी, ही तो है। मिट्टी के निष्प्राण अस्तित्व। जिजीविषा की लौ के प्रज्वलित होने पर क्रियाशील दीप हो जाते हैं। नित्य नई ऊँचाईयों को छूता यह विश्व, प्रज्वलित दीपों का वह संसार है जिसके लिए प्रत्येक मानवीय उपलब्धि दीपावली है।
दीपक का अंतःकरण
यदि दीये की अंतःकरण में झाँककर देखें तो पाएँगे कि वह कितनी आत्मीय तरलता और निश्छलता से भरा है। उसमें कितनी मार्मिक संवेदना है, कितनी अदम्य जिजीविषा है, कितना स्वाभाविक आत्माभिमान है और मिट्टी के बने रहने के बावजूद कितनी दृढ़ता है। इस दीये में भरे तेल की तरलता इतनी आत्मीय है कि वह हमारी उँगलियों का स्पर्श पाकर उन्हें अपने नेह से भिगो देती है। यह तरल स्निग्धता इतनी निष्कपट भी है कि वह बाती को संवेदन से इतना भरपूर कर देती है कि तीली की लौ से वह जैसे ही स्पर्श पाती है, दीपशिखा बन जगमगाने लगती है।
यह दीपशिखा जीवंत हो जाती है, निष्कम्प जलती है, आँधी के बीच भी थरथराते हुए अपना अस्तित्व कायम रखने की कोशिश करती है और कितनी ही बेतरतीब रंगीन रोशनी बिखेरते रहें कृत्रिम विद्युत के गोले, वह अपनी मर्यादा में अडिग जलती रहती है। दीपक का यह आलोक विद्युत के गोलों से फूटने वाली रोशनी से समझौते नहीं करता। वह न तो अपने आप टूटता है और न ही उसकी वर्तिका स्वयं को बुझाती है।
न दर्प ना दैन्य
दीये की इस लौ का आलोक, सूरज के आलोक से भिन्न है। दीये की बाती की लौ से निकलती रोशनी, आत्मीय ऊष्मा और उजास देती है, तपन नहीं देती, आँखों को चुंधियाने की पीड़ा नहीं देती। दीये की बाती से निकली उजास झिलमिलाती, सारे वातावरण में तैरती ऐसी अहंकारशून्य उजास है जो मुंडेर- मुंडेर और मन मन, हौले हौले, बड़े अनौपचारिक भाव से प्रविष्ट होती है और फिर हमारे सारे अस्तित्व को बाहर और अंदर जगमगा देती है। आत्मीयता की आँच से नहला देने वाली दीये की इस रेशमी रोशनी समस्त वसुधा को अपने आंचल में समेट लेती है।
धान्योत्सव की अन्नपूर्णा
यह महोत्सव लक्ष्मी से भी जोड़ लिया गया। उस लक्ष्मी से जो धन की देवी हैं। लेकिन लक्ष्मी की यह व्यंजना है ही नहीं। ऋग्वेद के श्रीसूक्त में लक्ष्मी के 70 नाम हैं। इनमें लक्ष्मी ज्वलंती हैं, हरिणी, मनोज्ञा, माता, प्रभासा, हिरण्या और भूदेवी हैं। हमारे लोक ने सार्थक लक्ष्मी स्वरूप को गढ़ लिया। यह भूदेवी और ज्वलंती का वह समन्वित रूप है जो हमारे लोक मानस को बहुत भाया। उसकी नियति सोने की लक्ष्मी को पूजने की तो नहीं थी इसलिए उसने अपनी दीपलक्ष्मी गढ़ ली। दीपलक्ष्मी के एक ओर मिट्टी के दीयों की शृंखला होती है, जिन्हें वह दीपावली पर प्रज्वलित करता है। मिट्टी की भूदेवी और ज्वलंती के विश्वासदीप!
‘आत्म दीप’ बनने का संकल्प लें
बौद्ध ग्रंथ ‘महापरिनिर्वाणसुत्त’ में उल्लेख है कि जब बुद्ध के परम शिष्य आनंद तथागत के महापरिनिर्वाण के समय उनसे कुछ कहने का आग्रह करते हैं, तब बुद्ध पाली में कहते हैं ‘तस्मातिहानंद अत्त्दीपविहरथ’ अर्थात्तु म लोग अपने द्वीप में आप विहार करो अर्थात् आत्मनिर्भर बनो। बुद्ध के इस उपदेश को हम ‘अप्प दीप भव’ अर्थात्‘अपने दीपक स्वयं बनो’ के रूप में ग्रहण करते हैं। पं. विद्यानिवास मिश्र के शब्द यदि उधार लें तो कहेंगे आत्मदीपबनना स्वयं को नैवेद्य के रूप में समर्पित करना है। आलोक अहंशून्य न हो तो फिर सृष्टि के कोने-कोने को वह अपने अंतर में समेटे कैसे? आत्मदीप बन जाना स्वयं में ऐसे आलोक की प्रतिष्ठा है जो अंधकार को तिरोहित कर देता है।
दीपावली का आरोग्य चिन्तन
दीपावली में साफ-सफाई का विशेष महत्व है। क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध हमारे शरीर को आरोग्य बनाए रखने से जुड़ा होता है। इसके लिए जरूरी है वर्षा ऋतु समाप्त होने पर घरों में छिपे मच्छरों, खटमलों, पिस्सुओं और अन्य दूसरे विषैले कीट-पतंगों को मार- भगाने का यचोचित उपचार जिससे मलेरिया, टाइफाइड जैसी घातक बीमारियों को फैलने का अवसर न मिले। सभी लोग अपनी सामथ्र्यअनुसार घरों की लिपाई-पुताई, रंग- रोगन कर घर की गन्दगी दूर कर आरोग्य होकर खुशियों की दीप जलाएँ।दीपावली में घर की साफ-सफाई तो सभी कर लेते हैं लेकिन जरा गंभीर होकर क्यों न हम अपने-अपने आस-पास के वातावरण को भी देख लें, जिसमें हमें आरोग्य रहना है।
शरीर को सत्कर्मका सबसे पहला साधन माना गया है (शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्) और यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम स्वस्थ रहे गे। क्यो कि पूर्णस्वास्थ्य संपदा से बढ़कर होता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास हो सकता है।
आरोग्य रहने की पहली शर्त है ताज़ ी हवा और शुद्ध पानी का सेवन। गाँवों में ताजी हवा तो मिलती है लेकिन गंदगी के कारण वह दूषित हो जाती है। गाँवों में जगह-जगह कूड़े-करकट के ढेर लगे रहते हैं। कई लोग आज भी आस-पास ही दिशा-पानी के लिए बैठ जाते हैं, जिससे गंदगी फैलती है और मक्खी- मच्छर उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे कई रोग उत्पन्न होते हैं। जरा सोचिए, ऐसी हालत में कैसे स्वस्थ होकर खुशी मनाएँगे। गाँवों को साफ-सुथरा रखा जाए तो वहाँ के निवासी ताजी हवा का सेवन कर हमेशा स्वस्थ रह सकेंगे। गाँव में पीने के पानी की भी बड़ी समस्या रहती है। कच्चे कुएँ का पानी नुकसानदेह तो होता ही है साथ ही पोखर और तालाबों का पानी पीने से भी कई प्रकार की बीमारियाँ लग जाती है। सारा गाँव उन्हीं में नहाता-धोता रहता है और उसी पानी को पीता है, जिससे कई बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं।
अब जरा शहर पर नजर दौड़ाइए- यहाँ न तो ताज़ी हवा ही मिलती है और न पानी। गाड़ी-मोटर, मिल और कारखानों के कार्बन-डाइआक्साइड उगलते धुएँ से दूषित वातावरण स्वास्थ्य के लिए कितना नुकसानदेह है, इससे जानते हुए भी हम इससे अनभिज्ञ बने रहते हैं। शहर की घनी आबादी के गली- कूँचों से यदि कोई सुबह-सुबह ताजी हवा के लिए निकल पड़े तो साक्षात नरक के दर्शन होना बड़ी बात नहीं हैं। नदियों का पानी हो या तालाबों का जब सारे गाँव-शहर भर की गंदगी को समेटे नाले उसमें गिरते हैं तो वह कितना पीने लायक होता है यह किसी से छिपा नहीं। इससे पहले कि वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ समय बाद शहर का अर्थ होगा, ‘मौत का घर’ वाली बात सच हो, हम एकजुट होकर समय रहते जागें और स्वस्थ रहने के उपायों पर जोर दें ताकि स्वयं के साथ ही देश की खुशहाली में अपनी भागीदारी निभाएँ। शक्तिहीन रोगी इंसानों का देश न तो कभी खुशहाल और सुख से रह सकता है और न धरती का स्वर्ग बन सकता है।
गाँव में किसान हो या मजदूर दिन भर काम करके बुरी तरह थक जाते हैं। इस परिश्रम की थकान को मिटाने तथा प्रसन्न रहने के लिए समय-समय पर धूमधाम से मनाये जाने वाले त्यौहार उनमें नई उमंग-तरंग भरकर ऊर्जा संचरण का काम करते हैं, जो स्वस्थ रहने के लिए बहुत जरूरी हैं। यद्यपि शहर की अनियमित दिनचर्या के बीच जीते लोगों के लिए आरोग्य बने रहने के लिए कई साधन उपलब्ध हैं, जिसमें सबसे मुख्य व्यायाम कहा जा सकता हैं। तथापि शहरी भागमभाग में लगे रहने से उनका ध्यान इस ओर बहुत कम और जरा सी अस्वस्थता के चलते अंग्रेजी दवाएँ गटकने में ज्यादा रहता है, जिसका दुष्परिणाम कई तरह की बीमारियों के रूप में आज हम सबके सबके सामने है। वे भूल जाते हैं कि नियमित व्यायाम स्वस्थ तन को आरोग्य बनाए रखने के लिए कितना आवश्यक है। इसके साथ ही उनके लिए यह त्यौहार भी थके-हारे, हैरान-परेशान मन में उमंग-तरंग भर आरोग्य बने रहने के लिए कम नहीं हैं।
प्रकाश पर विश्वास
दीपावली पर सर्वत्र व्याप्त इसी दीप्ति को महर्षि अरविंद अति मानसिक चेतना कहते हैं, जिसमें इस पृथ्वी पर दिव्य भागवत जीवन को प्रतिष्ठित करने की सामथ्र्य है। दीपावली इसी सामथ्र्य के प्रदर्शन का उत्सव है, जब अंतर ज्योति का अविराम प्रवाह राम में परिणत हो जाता है, मन अयोध्या बन जाता है और मानस में उठते विचार सरयू की हिलोर। इस पर्व पर मिट्टी के दीप घर की मुंडेर के ऊपर झिलमिलाते हैं लेकिन अंतर का दीप इससे प्रज्वलित नहीं होता। इस मिट्टी के दीए की व्यंजना में जाया जाए तो यह आत्मदीप जो प्रकाश का आधार तत्व है स्वतः प्रज्वलित होगा। इसके लिए हमें प्रकाश पर, उजास पर भरोसा करना होगा। दीये के अस्तित्व को सहेजना होगा, उसके अंतः करण में झांककर उजास के मर्म से साक्षात्कार करना होगा तब सच्चे आराध्य के दर्शन होंगे।
प्रधानाचार्य, रा.उ.मा.वि. कैलाशपुरी, उदयपुर
डाॅ. अनिल कुमार दशोरा