हिन्दू समाज की निर्धन और निर्बल जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दादा के नाम से प्रसिद्ध पांडुरंग शास्त्री आठवले के मन में निर्बलों के प्रति अतिशय प्रेम था। पांडुरंग शास्त्री आठवले भारत के दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरू तथा समाज सुधारक थे। उनको आत्मीयतावश दादाजी के नाम से जाना जाता है, जिसका मराठी में अर्थ ‘बड़े भाई साहब‘ होता है। आपने सन् 1954 में स्वाध्याय आन्दोलन चलाया और स्वाध्याय परिवार की स्थापना की। स्वाध्याय आन्दोलन श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित आत्म-ज्ञान का आन्दोलन है, जो भारत के एक लाख से अधिक गावों में फैला हुआ है। इसके लाखों सदस्य हैं। दादाजी गीता एवं उपनिषदों पर अपने प्रवचन के लिये प्रसिद्ध थे।
‘स्वाध्याय’ परिवार के प्रणेता पाण्डुरंग शास्त्री आठवले, जो अपने अनुयायियों के बीच ‘‘दादा’’ के नाम से प्रसिद्ध थे, का जन्म 19 अक्टूबर, 1920 को महाराष्ट्र में मुंबई के पास रोहा गाँव में चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पांडुरंग शास्त्री के पिता वैजनाथ शास्त्री संस्कृत शिक्षक थे और उसकी माता पार्वती आठवले थी। आठवले परिवार में धार्मिक प्रवृत्तियों की परम्परा थी। विद्वता की इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए आठवले ने संस्कृत भाषा सीखी और सनातन धर्म से जुड़े ग्रंथों वेद-पुराण- उपनिषद्- गीता आदि ग्रंथों के अध्ययन में लग गए। उन्होंने समाज में स्वाध्याय के माध्यम से आत्म चेतना जगाने का आदर्श स्थापित करने की कोशिश की तथा समाज सुधार आंदोलन भी चलाया। आठवले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जागृत किया तथा आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग सम्भव बनाया। वर्ष 1999 में भारत सरकार ने ‘दादा’ पाण्डुरंग को ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया।
प्रारम्भिक जीवन काल
स्कूल का शिक्षण पूरा होने के बाद पांडुरंग शास्त्री के पिता ने अपने संबंधियों के सुझाव (ICS Examination) के विरुद्ध जाकर कुछ नया करने का सपना देखा।
12 साल की उम्र में उनके पिता वैजनाथ ने पांडुरंग शास्त्री को पढ़ने के लिए रोहा में एक अलग पाठ्यक्रम बनाया जो बिलकुल भारत के तपोवन जैसा था। पांडुरंग शास्त्री के पिता ने ‘‘सरस्वती संस्कृत पाठशाला’’ बनाकर उसमे पांडुरंग शास्त्री को पढ़ाना शुरू कर दिया। लोगों का ये मानना था कि तपोवन शिक्षण पद्धति में अंग्रेजी नहीं पढ़ाया जाता है लेकिन वैजनाथ शास्त्रीजी ने ये परंपरा दूर करके उसे अंग्रेजी का भी अच्छा शिक्षण दिया।
जन्म शताब्दीः 1920-2020
बचपन से ही उन्हें संस्कृत और दूसरे हिन्दू ग्रंथों की शिक्षा दी गई थी। पांडुरंग शास्त्री के पिताजी के गले में खराबी आ जाने की वजह से पाठशाला की पूरी जिम्मेदारी अब दादाजी (पांडुरंग शास्त्री) के कंधे पर थी। 22 साल की उम्र में यानि की 1942 में पांडुरंग शास्त्री ने ‘‘श्रीमद् भगवद् गीता पाठशाला’’ जो उनके पिताजी ने 1926 में बनाई थी, उसमें प्रवचन देना शुरू कर दिया था। 1956 में दादाजी ने ‘‘तत्वज्ञान विद्यापीठ’’ प्रारम्भ किया, जिसमें सिर्फ भारतीय ही नहीं विदेशी भाषाओं का भी शिक्षण दिया जाता था। दादाजी को प्रारम्भ में स्वाध्याय का काम करने में बहुत मुश्किलें हुआ करती थी क्योंकि उन्होंने कभी किसी से पैसा नहीं लिया था और वो सैंकड़ों गाँव में जाकर सब लोगों को जागृत करते थे। वे शुरुआत में पैदल चलकर और फिर भाड़े परली हुई साइकल लेकर अलग अलग लोगों तक पहुँचते थे।
उस ‘बाण प्रश्न’ ने झकझोरा और आरंभ हुआ ‘स्वाध्याय’
परिवार से प्राप्त सनातन धर्म की ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाने का काम कर रहे पाण्डुरंग शास्त्री आठवले ने भारतीय वेद-पुराणों, उपनिषदों, महाभारत-गीता आदि ग्रंथों के इस सार को काफी हद तक समझ लिया था कि मानव जीवन केवल और केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए मिला है। भारतीय दर्शन के बारे में आठवले ने अत्यंत गूढ़ अध्ययन कर चुके पाण्डुरंग का जीवन 1954 में घटी एक घटना ने बदल डाला। उस समय आठवले 34 वर्ष के युवा थे। इसी दौरान आठवले को जापान के शिम्त्सु में आयोजित द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला।
इस सम्मेलन में आठवले ने पूरे विश्व के समक्ष वैदिक ज्ञान और जीवन दर्शन के महत्व पर सारगर्भित व्याख्यान दिया और उसे अपनाने पर बल दिया। इसी सम्मेलन में एक श्रोता ने दादा से प्रश्न किया, ‘आपके देश में क्या कोई एक भी सम्प्रदाय ऐसा है, जो इन आदर्शों तथा जीवन दर्शन को जीवन व्यवहार में अपनाए हुए है?’ यह प्रश्न अठावले के सीने में बाण की तरह उतरा और उन्हें लहुलुहान कर गया। 200 वर्षों की अंग्रेजी दासता और पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण के चलते भारत अपनी प्राचीन सनातन-वैदिक धर्म संस्कृति से पहले ही भटक चुका था। जब आठवले जापान में द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण देने पहुँचे थे, तब भारतीय स्वतंत्रता को मात्र 7 वर्ष ही हुए थे। ऐसे में विदेशियों की दृष्टि में भारत के प्रति हीनता, निर्धनता और अज्ञानता की भावना थी। यही कारण था कि इस सम्मेलन में इसी कठोर भावना और कटाक्षपूर्ण व्यंग्य के साथ एक विदेशी श्रोता ने आठवले से प्रश्न किया, जिससे वे क्षोभ में पड़ गए, क्योंकि वे स्वयं जानते थे कि भारत में तेजी से बदलती युवा पीढ़ी और पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण के चलते पुरातन-प्राचीन- वैदिक संस्कृति के प्रति घोर अवहेलना और अज्ञानता है।
इसी कारण आठवले को एक विदेशी श्रोता का यह प्रश्न तीखे बाण की तरह लगा और वे एक ‘संकल्प’ के साथ स्वदेश लौट आए। भारत लौटते ही उन्होंने भारत में भारतीय जीवन की वर्तमान और प्रासंगिक स्थिति पर विचार-विमर्श और चर्चा का सिलसिला प्रारंभ किया और इसके साथ ही ‘स्वाध्याय आंदोलन’ की नींव पड़ी।
तत्वज्ञान से ऊँचा कोई ज्ञान नही
‘स्वाध्याय आंदोलन’ श्रीमद् भगवद् गीता पर आधारित आत्म- ज्ञान का आंदोलन रहा है। यह आंदोलन भारत के लाखों गाँवों तक पहुँचाया गया। उन्होंने गीता एवं उपनिषदों पर अपने प्रवचन दिए जो काफी प्रसिद्ध रहे। जिनकी वजह से उन्हें आज भी याद किया जाता है। उन्होंने आध्यात्म की तरफ लोगों को ध्यान खींचा। इसके लिए स्वाध्याय परिवार का निर्माण किया। उनके जन्मदिन को हर साल ‘मनुष्य गौरव दिन’ के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने साहित्य, वेदांत और न्याय का अध्ययन किया। कहते हैं कि पांडुरंग शास्त्री ने अखंड वैदिक धर्म, जीवन जीने का तरीका, पूजा का तरीका और पवित्र मन से सोचने का तरीका लोगों को दिया। जिसके आधार पर स्वाध्याय परिवार का निर्माण हुआ।
पाण्डुरंग शास्त्री आठवले भारतीय दर्शन को भली-भाँति समझ चुके थे। इसीलिए उन्होंने विश्व धर्म सम्मेलन में जो भारतीय दर्शन की बातें रखी थीं, उनसे विमुख हो चुके अपने ही भारत देश के लोगों को पुनः जोड़ने की दिशा में कार्यारंभ किया। आठवले जानते थे कि तत्वज्ञान यानी स्वयं को जानने से ऊँचा, ऊपर या बड़ा कोई और ज्ञान नहीं है। इसीलिए उन्होंने 1956 में ‘तत्व ज्ञान विद्यापीठ’ की स्थापना की। भारतीय जीवन दर्शन वास्तव में कोई धर्म नहीं है, जिसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, यहूदी, जैन आदि सम्प्रदायों तक सीमित रखा जा सके, अपितु भारतीय दर्शन किसी भी प्रकार की धार्मिक कट्टरता से पूर्णतः मुक्त है और यह समस्त जीवों के कल्याण यानी मोक्ष, मुक्ति, स्वयं-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर का साक्षात्कार, जीवनमुक्ति, तत्वज्ञान, परमात्म प्राप्ति की ओर ले जाता है। यही बात भारत के लोगों को समझाने के लिए दादा ने तत्व ज्ञान विद्यापीठ की स्थापना की, जिसमें भारत के आदिकालीन ज्ञान तथा पाश्चात्य ज्ञान दोनों का समन्वय रखा। इसके साथ ही आठवले भारतीय सनातन ज्ञान परम्परा के लिए भारत भ्रमण पर चल पड़े, लोगों से मिले, डाॅक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों, उद्योगपतियों जैसे शिक्षित लोगों को ही नहीं, अपितु निर्धन, निरक्षर व धार्मिक आडंबरों को ही भक्ति समझने वालों तक यह बात पहुँचाई कि वे अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकाल कर ईश्वर का ध्यान करें तथा भक्ति भाव अपनाएँ, आत्म-चेतना जगाएँ और बाह्य दौड़ त्याग कर स्वयं की ओर यानी भीतर की ओर यात्रा करें।
आठवले बने ‘दादा’ और स्वाध्याय बना आंदोलन
आठवले ने स्वाध्याय के माध्यम से आत्म-चेतना को जागृत करने को अपने जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य बनाया। स्वाध्याय यानी स्वयं को जानने का अभ्यास। धीरे-धीरे आठवले के स्वाध्याय को लोग समझने लगे और यह स्वाध्याय 1958 में एक आंदोलन बन गया, जब आठवले के आह्वान पर उनके अनुयायियों ने गाँव-गाँव घूमकर उनका संदेश प्रसारित करते हुए स्वाध्याय की महिमा सबको बतानी शुरू की और उन्होंने अपने गुरु का यह विवेक सबको दिया कि स्वाध्याय के मार्ग में किसी भी धर्म, जाति या स्त्री, पुरुष का कोई भेद नहीं है और धर्म मानव जाति की बराबरी में विश्वास करता है। आठवले के इस स्वाध्याय आंदोलन ने लगातार विकास किया और उसके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई। पाण्डुरंग आठवले शास्त्री अपने भक्तों के बीच ‘दादा’ (बड़ा भाई) कह कर सम्बोधित किए जाने लगे। 1964 में पोप पाॅल चतुर्थ भारत आए और उन्होंने ‘दादा’ से उनके दर्शन को लेकर चर्चा की। स्वाध्याय की महिमा इतनी बढ़ गई कि आठवले के अनुयायियों का स्वाध्याय परिवार बन गया।
जिन्हें भारत के सामान्य जन में अपने गौरव की पुनः प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास की जागृति तथा हिंसक और द्वेषपूर्ण सामाजिक विघटन के स्थान पर जाति तथा वर्गभेद की दीवारों को लांघते हुए आत्मीय सम्बंधों का निर्माण कर सामाजिक स्तर पर ऐक्य की शक्ति को गतिशील बनाने वाले भाव, दर्शन तथा उपायों की तलाश है, उन्हें ‘‘स्वाध्याय’’ में अपने स्वप्न साकार होते दिखेंगे। न केवल ‘‘स्वाध्याय’’ ने व्यक्ति और समुदायों को उस गहरे स्तर पर प्रभावित करने की सामथ्र्य सिद्ध की है। जहाँ व्यक्ति अपनी उन्नत पहचान पाता है, बल्कि इसके साथ ही इसके सार्थक प्रभाव का क्षेत्र इतना विशाल है कि लगता है इस वृहद देश को अपनी पटरी पर वापस लाने वाले पुरुषार्थ ऐसे ही होते होंगे। विगत काल में हुई सौराष्ट्र क्षेत्र की स्वाध्यायियों की सभा में इतने लोग थे, जितने कभी नहीं देखे। एक बृहत् परिवार के अनुशासन से खचा-खच कतारों में दृष्टि की सीमा तक लोग बैठे थे। संख्या का हिसाब जहाँ निरर्थक हो जाता है, इतने केवल एकत्रित ही नहीं हुए थे। उनके प्रतिनिधियों के वक्तव्यों, 125 रंगमंचों पर एक साथ होते नृत्यों, भावगीतों तथा लाखों लोगों के कंठ से एक साथ शुद्ध संस्कृत में गाए गए स्तोत्रों के द्वारा वे इस बात का प्रमाण भी दे रहे थे कि किस समाज का कहाँ से उठना वास्तव में उठना होता है। जब एक हरिजन युवक सहज आत्मबोध के साथ कहता है कि
स्वाध्याय और दादाजी के विचारों के प्रभाव से लोगों ने जुआ, शराब, मांसाहार, कुरीति और अंधविश्वासों को छोड़ा है। परिवार में प्रेम और समुदाय में ऐक्य बढ़ा है। व्यक्ति में गौरव और स्वाभिमान जागृत हुआ है। जो भी व्यवसाय करते हैं, उसे श्रमभक्ति के भाव से करते हैं और ईश्वर भीतर है, बाहर नहीं, इसलिए शरीर को मंदिर जैसा बनाने की सतत प्रेरणा से जागृत रह कर व्यसन-शुद्धि, भाषा-शुद्धि और व्यवहार-शुद्धि इनके जीवन में स्पष्ट दिखती है। जो ईश्वर मेरा तंत्र चलाता है, वही दूसरे में भी है, इस भाव ने व्यक्ति यों के समूह को समाज में बदल दिया है। शराब, मांसाहार और जुआ जाने से आर्थिक स्थिति में परिवर्तन तो आया ही है, स्त्रियों की मार-पीट का अंत हुआ तथा परिवार का जीवन समृद्ध बना है।
‘‘मैं ब्राह्मण हूँ, तो यह वह घटना है, जिसकी बाधित हुई शक्ति कारण हम आंतरिक रूप से तो कमजोर हुए ही, बाहरी आक्रमण के सामने भी पिघलते हुए गुलाम बने और विघटित भी हुए। जिस समुदाय को हिन्दू समाज से अलग होने से बचाने के लिए महात्मा गाँधी अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे तथा उन्होंने ऐसा करने की प्रेरणा को ईश्वर से साक्षात्कार बताया, उसी समुदाय के लाखों सदस्य किस प्रेरणा से सैकड़ों वर्षों के अत्याचार के दंश से बनी ग्रंथि से मुक्त हो कर और प्रतिशोध के स्थान पर प्रेम और आत्मसम्मान की भाषा बोलने लगे हैं?
‘‘स्वाध्याय’’ ने इन्हें जो दिया है, वह अवश्य ही प्रतिशोध और विद्रोह से मिलती आत्मतुष्टि से अधिक आकर्षक और समृद्ध करने वाला होगा। यह समझना हमारे समाज के सनातन, लेकिन गूढ़ रहस्य को समझने के बराबर है।
केवल गुजरात में ही पाँच लाख से अधिक हरिजन होंगे, जो शराब, जुआ, गाली-गलौच, स्त्रियों को मारना इत्यादि से ऊपर उठ कर उस संस्कारिता के दर्शन कराते हैं, जिसके अभाव में वे तुच्छ और हेय माने गए। इस जीवन से उन्हें वंचित रखने के क्रम में शास्त्रीय विद्या-ज्ञान का रास्ता बंद कर दिया था। उस रास्ते की कुंजी समान संस्कृत में जब शुद्ध आचरण से वे नारायण उपनिषद, श्रीसूक्त या दिन में तीन बार नियमित त्रिकाल संध्या का पाठ करते हैं, तो किसी भी सच्चे राष्ट्रभक्त को इस विचार से रोमांच होगा के सभ्यता ऐसे ही करवट लेती है। ‘‘स्वाध्याय’’ के ऐसे अनेक पक्ष हैं।
राजकोट में विशाल सभा, पुरस्कार व सम्मान
‘दादा’ पाण्डुरंग को वर्ष 1988 में ‘महात्मा गाँधी पुरस्कार’ दिया गया। 19 मार्च, 1995 में उन्होंने गुजरात के राजकोट में अपने भक्तों की विशाल जनसभा को सम्बोधित किया। वेदों और उपनिषदों में भारत की अकूत ज्ञान सम्पदा निहित है तथा हिंदू संस्कृति उससे इस सीमा तक समृद्ध है कि उसके माध्यम से आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है। आठवले पाण्डुरंग शास्त्री ने इस तथ्य को समझा तथा उन कारणों की खोज की, जिनको उन ग्रंथों की सामथ्र्य की अपेक्षा के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। आठवले ने युक्तिपूर्वक वेदों, उपनिषदों तथा हिंदू संस्कृति की आध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जागृत किया तथा आधुनिक भारत के सामाजिक रूपांतरण में उस ज्ञान तथा विवेक का प्रयोग सम्भव बनाया। आठवले पाण्डुरंग शास्त्री को सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1999 का ‘मैग्सेसे पुरस्कार’ प्रदान किया गया। वर्ष 1999 में ही भारत सरकार ने ‘दादा’ पाण्डुरंग को ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया था। सन 1997 में उन्हें धर्म के क्षेत्र में उन्नति के लिये ‘टेम्पल्टन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। ‘दादा’ पाण्डुरंग शास्त्री आठवले 25 अक्टूबर, 2003 को मुम्बई में इस संसार से अंतध्र्यान हो गए।
‘दादा’ को लहुलुहान करने वाला प्रश्न आज भी प्रश्न क्यों?
1954 में दादा को एक विदेशी श्रोता के जिस प्रश्न ने लहुलुहान किया था, वह प्रश्न आज आधुनिक भारत में और भी विकराल होकर यक्षप्रश्न बन चुका है, क्योंकि आज का भारत विशेषकर युवा पीढ़ी ने तो हमारे पुरातन-प्राचीन इतिहास को जानती है और न ही जानने में दिलचस्पी रखती है। इंटरनेट, मोबाइल, वाॅट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम के इस युग में विज्ञान की ओर से दी गई सुविधाओं को ही सुख और शांति समझने वाली आज की युवा पीढ़ी केवल और केवल बाह्य भौतिक दौड़ लगा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर कहते हैं, ‘जो अपना इतिहास नहीं जानते, वे भूगोल नहीं बदल सकते।’ यह बात मोदी इसलिए इतनी सटीकता से कह सकते हैं, क्योंकि वे न केवल भारत के भव्य व गौरवशाली प्राचीन-पुरातन इतिहास से अवगत हैं, अपितु अपने जीवन, व्यवहार व आचरण में भी इसे आत्मसात् करते हैं। मोदी ने अपना यह महावाक्य सत्य भी सिद्ध कर दिखाया, जब उन्होंने धारा 370 के इतिहास जानते हुए उसे हटा कर जम्मू-कश्मीर का भूगोल बदल डाला।
प्रश्न यह उठता है कि आज की युवा पीढ़ी स्वयं की ओर कब प्रयाण करेगी ? आठवले ने तो अपने जीवनकाल में जितने संभव थे, प्रयास किए, परंतु आज की युवा पीढ़ी को क्या हो गया है? क्यों उसे केवल मुगलों का इतिहास पता है, जबकि वे उससे भी पुरातन- प्राचीन सनातन धर्म, वैदिक ज्ञान परम्परा, आत्म-ज्ञान, तत्व-ज्ञान जैसे शब्दों से अनभिज्ञ है? अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। कुछ समय पूर्व ही कौन बनेगा करोड़पति (ज्ञठब्) में आईं बाॅलीवुड अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा का ही उदाहरण ले लीजिए, जो रामायण से जुड़े इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी थीं कि हनुमान संजीवनी बूटी किसके लिए लाए थे? सोनाक्षी, जिनका घर-परिवार सब कुछ रामायण और उसके पात्रों से जुड़ा हुआ है, जब इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकीं, तो इसके लिए उत्तरदायी कौन है? वास्तव में हमारी शिक्षा पद्धति ही सबसे बड़ी उत्तरदायी है, जिसमें इतिहास को प्रमाणों की सीमाओं में बाँध दिया गया है। इतना ही नहीं, कुछ संकीर्ण बुद्धिजीवियों ने हमारी शिक्षा पद्धति से हमारे कई गौरवशाली इतिहास के पन्नों को स्थान देने में बाधा डाली और सरकारें भी मौन रहीं।
पांडुरंग शास्त्री आठवले के जन्मदिन को ‘मनुष्य गौरव दिन’ के रूप में मनाया जाता है। पांडुरंग शास्त्री ने पारंपरिक शिक्षा के साथ ही सरस्वती संस्कृत विद्यालय में संस्कृत व्याकरण के साथ न्याय, वेदांत, साहित्य और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। उन्हें राॅयल एशियाटिक सोसाइटी मुंबई द्वारा मानद सदस्य की उपाधि से सम्मानित किया गया। इस पुस्तकालय में, उन्होंने उपन्यास खंड को छोड़कर सभी विषयों के प्रमुख लेखकों की प्रसिद्ध पुस्तकों का अध्ययन किया। वेदों, उपनिषदों, स्मृति, पुराणों पर चिंतन करते हुए। श्रीमद्भगवद्गीता पाठशाला (माधवबाग मुंबई) में, पांडुरंगशास्त्री ने अखंड वैदिक धर्म, जीवन जीने का तरीका, पूजा का तरीका और पवित्र मंच से सोचने का तरीका दिया।
व्यक्ति और समाज स्वावलम्बन निर्मिति के पांडुरंग शास्त्री आठवले के अभिनव प्रयोग
त्रिकाल संध्या:- त्रिकाल संध्या यानि की एक दिन में तीन बार बोले जाने वाले श्लोक।
सुबहः- सुबह उठने के साथ ही अपने हाथ को देखकर 4 श्लोक बोलने होते हैं, श्रीमद भगवद गीता के अनुसार अपने हाथ में भगवान होते हैं।
सुबह में सबसे पहले अपने हाथ को देखकर दिन का प्रारम्भ करनी चाहिए और एक वजह है कि जब हम रात को सो जाते है उसके बाद हमें कुछ याद नहीं होता है, लेकिन सुबह उठते ही हमको सब याद आ जाता है। यानि की भगवान हमको स्मृति दान देते है। तो भगवान का आभार मानना तो बनता है। और अगर वैज्ञानिक रूप से देखे तो भी इसके बहुत सारे फायदे हैं।
कराग्रे वसते लक्ष्मिः करमध्ये सरस्वति।
करमुले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे।।
वसुदेवसुतं दघ्वं कंस चाणूर मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्देजगद्गुरुम्।।
दोपहर:- दोपहर को जब हम खाना खाते हैं तो उसमें से भगवान हमको शक्ति दान करते हैं यानि की शक्ति देते है। हमारे लहू को लाल बनाते हैं तो दोपहर खाने से पहले भगवान को याद करना अच्छा होता है।
यज्ञ शिष्ठा शिनः षन्तो मुच्यन्ते सर्व किल बिशैहि।
भुन्जते ते त्वघं पाप ये पचन्त्यात्मा कारणात।।
यत् करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत् तपस्यसि कौन्तेय, तत्कुरुश्व मदर्पणम्।।
अहं वैश्वा नरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापान समायुक्त, पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
सहनाववतु सहनौ भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।
तेजस्विना वधितमस्तु मा विद्विषावहैऊँ
शान्ति शान्ति शान्तिः।।
रात:- रात को सोने से पहले हम पूरे दिन की भाग-दौड़ से थक जाते हैं लेकिन फिर भी हमें अच्छी नींद आ जाती है और रात को शांति मिलती है। अगर वैज्ञानिक रूप से देखे तो संस्कृत में श्लोक बोलने से मन को शांति मिलती है।
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः।
करचरणकृतं वाक् कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाअपराधं।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शंभो।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव।
बाल संस्कार केंद्र:- बाल संस्कार केंद्र में छोटे बालक और बालिकाओं को साथ में बिठाकर केंद्र चलाया जाता है जो कोई एक बड़ा आदमी चलाता है। जिस में श्लोक और रमत गमत और भावगीत गाना होता है। छोटे बच्चों को जानकारी भी मिलती है श्लोक भी सीखते हैं और उसका मनोरंजन भी हो जाता है।
युवा केंद्र:- युवा केंद्र में सब युवान (15-30 साल के)(Only MEN) मिलकर केंद्र चलाते हैं।
युवती केंद्र:- युवती केंद्र में आस पास की युवती (15-30 साल की)(Only Girls) मिलकर केंद्र चलाते हैं।
स्वाध्याय केंद्र:- एक विचारशील और राजसी समाज का उदय, तभी होगा जब भारतीय सांस्कृतिक विरासत और समकालीन पश्चिमी विचारों का संश्लेषण होगा। रोहा के तपोवन में छात्रों को अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता के साथ तुलनात्मक पूर्वी और पश्चिमी दर्शन में गहन प्रशिक्षण दिया गया था। स्वाध्याय केंद्र के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है पर शायद इसे विडियो केंद्र के नाम से भी जाना जाता है। जिसमे दादाजी का रिकाॅर्ड किया हुआ केसेट देखते हैं।
वृक्ष मंदिर:- बंजर जमीन पर पेड़ पौधे लगाकर उसे हरा बनाना और पर्यावरण का संतुलन करना इस प्रयोग का मुख्य ध्येय है। दादाजी ने ये प्रयोग शुरू किया था और आज बहुत सी जगह पे वृक्ष मंदिर बने है। पेड़ में भी भगवान होते हैं ऐसा मानकर शुरू किया गया ये प्रयोग में स्वाध्याय परिवार साल में एक बार वृक्ष की पूजा करते हैं।
योगेश्वर कृषि:- श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार ‘‘स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य’’ यानि की मनुष्य अपने कर्म के द्वारा पूजन करके परमात्मा को खुश कर सकता है। इसी सिद्धांत के अनुसार दादाजी ने योगेश्वर कृषि की शुरुआत की थी, जिसमे गाँव की कोई एक जमीन या खेत को चुना जाता है और उसमे खेती की जाती है, पूरा स्वाध्याय परिवार मिलकर खेती करता है और उसमे से जो पैसा मिलता है वो किसी जरूरतमंद आदमी को दिया जाता है। पैसा देने के बाद जब वो आदमी के पास पैसा आ जाता है तो वो पैसा लौटा देता है। लेकिन उनसे कभी कोई माँगता नहीं है।
मत्स्यगंधा:- जैसे की ऊपर बताया जहाँ पर खेती हो सकती है वह पर योगेश्वर कृषि है लेकिन समुंदर वाले इलाके में खेती नहीं हो सकती तो वहाँ पर मत्स्यगंधा होती है यानि की मच्छिमार लोग उसकी कमाई का कुछ हिस्सा गरीबों और जरूरतमंद लोगों में बाँट देते हैं। 1960 में शायद दादाजी ने मच्छिमार लोगों के साथ काम करना शुरू किया था। मत्स्यगंधा प्रयोग शुरू होने की वजह से आज ओखा से लेकर गोवा तक कोई भी गाँव भूख से नहीं मर रहा है।
हीरा मंदिर:- किसान लोग योगेश्वर कृषि में अपना योगदान देते हैं और मच्छिमार लोग मत्स्यगंधा में अपना योगदान देते है लेकिन जिन लोगों को इन दोनों में से कुछ भी नहीं आता यानि की जो हीरा घिसने का काम करते हैं, उनके लिये हीरा मंदिर बनाया गया। हीरा मंदिर में डायमंड वर्कर्स अपनी जो कमाई होती है वो जरूरतमंद लोगों को दे देते हैं।
पतंजलि चिकित्सालय:- स्वाध्याय परिवार में जो लोग डाॅक्टर होते हैं वो अपना योगदान पतंजलि चिकित्सालय में देते हैं। जो बहुत दूर के गाँव होते हैं जहाँ पर बहुत सुविधाएँ नहीं होती वहाँ पर हप्ते में या महीने में एक दिन ये डाॅक्टर जाकर लोगों का इलाज करते हैं और उसके पैसे नहीं लेते हैं।
इसके अलावा भी बहुत सारे प्रयोग हैं जैसे कि श्री दर्शनं, अमृतालयम, गौरस, यंत्र मंदिर, सायं प्रार्थना।
इसके अलावा भी कई और प्रयोग किये हैं दादाजी ने जो बहुत ही अच्छे हैं और आज भी स्वाध्याय परिवार उससे जुड़ा हुआ है। आज भी कोई भी स्वाध्याय में हिन्दू-मुस्लिम, ज्ञाति-जाती, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेदभाव बिना सब लोग एक ही जगह पर बैठ कर स्वाध्याय करते हैं।
स्वाध्याय में जाने की वजह से कई लोगों को उसकी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान मिलता था।
दादाजी यानि की परम पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले के जन्म दिवस को स्वाध्याय परिवार ‘‘मनुष्य गौरव दिन’’ के नाम से मनाते है।
स्वाध्याय की वजह से आज बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनकी शराब, जुआ और बहुत सी खराब आदतें छुट गई हैं। स्वाध्याय परिवार की शुरुआत महाराष्ट्र में हुई थी, धीरे धीरे स्वाध्याय की प्रवृति आज 100000 से भी ज्यादा गाँवों में फैली हुई है और उसके 120 मिलियन से भी ज्यादा फोलोवर्स हैं।
केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के और भी कई देशों में स्वाध्याय होता है जैसे कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजिलेंड, यूरोप, केरेबियन, अफ्रीका और भी बहुत है।