महाराजा रणजीत सिंह दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने जम्मू और कश्मीर को मिलाकर एक प्रभुता सम्पन्न शक्तिशाली राज्य का रूप दिया। यह राज्य तिब्बत के पश्चिमी सिंध के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक एक भौगोलिक और राजनीतिक इकाई था। उन्होंने न तो अंग्रेजो से युद्ध किया और न उनकी सेनाओं को अपने राज्य के अंदर आने दिया। काबुल के शासकों ने पेशावर पर कब्जा करने के कई असफल प्रयत्न किये। 1849 में अंग्रेजो के अधिकार में आने तक यहाँ सिखों का आधिपत्य बना रहा।
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म पंजाब के गुजरांवाला की सुकरचकिया मसल में 13 नवंबर 1780 को महासिंह और उनकी पत्नी राज कौर के घर हुआ था। यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में आता है। रणजीत सिंह ने महज 17 साल की उम्र में भारत पर हमला करने वाले आक्रमणकारी जमन शाह दुर्रानी को हराकर अपनी पहली विजय प्राप्त की। इस जीत के साथ उन्होंने लाहौर पर कब्जा कर लिया और अगले कुछ दशकों में एक विशाल सिख साम्राज्य की स्थापना की।
12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह की पंजाब के महाराज के तौर पर ताजपोशी की गई। महज 20 साल की उम्र में उन्होंने यह उपलब्धि हासिल की थी। लाहौर विजय के बाद उन्होंने अपने साम्राज्य को विस्तार देना शुरू किया। 1802 में उन्होंने अमृतसर को अपने साम्राज्य में मिला लिया। 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतबुद्दीन को हराकर कसूर पर कब्जा किया। इसके बाद 1818 में मुल्तान और 1819 में कश्मीर सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह एक आधुनिक सेना बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी सेना में कई यूरोपीय अधिकारियों को भी नियुक्त किया था। उनकी सेना को खालसा आर्मी के नाम से जाना जाता था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेज कब्जा नहीं कर पाए थे।
महाराजा की एक आँख बचपन में चेचक की बीमारी से खराब हो गई थी। इस बारे में वह कहते थे, भगवान ने मुझे एक आँख दी है, इसलिए उससे दिखने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अमीर-गरीब मुझे सभी बराबर देखते
हैं। अपने पिता के साथ महज 10 साल की उम्र में पहली लड़ाई लड़ने वाले रणजीत सिंह खुद पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में कानून- व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को मौत की सजा नहीं दी। उन्होंने तख्त सिंह पटनासाहिब और तख्त सिंह हजूर सिहाब का निर्माण भी कराया।
59 वर्ष की उम्र में 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी। यद्यपि उसके 10 वर्ष बाद ही यह राज्य विच्छिन्न हो गया पर अपनी वीरता, राजनीतिज्ञता और उदारता के लिए महाराजा रणजीत सिंह को भारत के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उनकी सरकार साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त थी और उसमे सभी समुदायों के लोग सम्मिलित थे। उन्होंने ऊँचे पदों पर हिन्दू और मुसलमानों सभी योग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया। कनिघम में लिखा है कि उनका राज्य जन-भावना पर आधारित था। ‘हिस्ट्री आॅफ द सिख’ के लेखक के शब्दों में रणजीत सिंह सामान्य व्यक्ति नहीं थे वरन् सम्पूर्ण पूर्व और पश्चिमी संसार में दुर्लभ मानसिक शक्तियों के स्वामी थे।
महाराजा रणजीत सिंह ने 1801-1839 तक पंजाब पर शासन किया। उस दौर में किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि पंजाब की तरफ बुरी नजर से देख सके। 27 जून, 1839 को महाराजा रणजीत सिंह का 59 की उम्र में निधन हो गया। इसके बाद सिख साम्राज्य की बागडोर खड़क सिंह के हाथ में आई, लेकिन वह रणजीत सिंह की तरह मजबूती से उनके साम्राज्य को नहीं संभाल सके। महाराजा रणजीत सिंह की 180वीं पुण्यतिथि के मौके पर पाकिस्तान में उनकी 8 फीट की प्रतिमा लगाई गई थी। यह मूर्ति लाहौर किले में माई जिंदियन हवेली के बाहर स्थापित की गई है। हवेली का नाम रणजीत सिंह की सबसे छोटी महारानी के नाम पर रखा गया है। इस प्रतिमा में महाराज को अपने पसंदीदा घोड़े पर बैठा दिखाया गया है। इस घोड़े को बाराजकई वंश के संस्थापक दोस्त मुहम्मद खान ने उन्हें उपहार में दिया था। प्रतिमा का वजन लगभग 250-330 किलोग्राम है।
उन्हें एक शानदार व्यक्तित्व वाले एक सक्षम और न्यायप्रिय शासक के रूप में याद किया जाता है। उनका साम्राज्य धर्मनिरपेक्ष था जहाँ सभी धर्मों का सम्मान किया जाता था और उनकी धार्मिक मान्यताओं के कारण किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। उन्होंने हरमंदिर साहिब के सुनहरे सौंदर्यीकरण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। उनके साहस और वीरता के लिए उन्हें दुनिया भर में बहुत सम्मान दिया गया था इसी कारण उन्हें ”शेर-ए-पंजाब“ (”पंजाब का शेर“) के रूप में जाना जाता था।
लोकेश जोशी