घुसपैठिये और शरणार्थी में मौलिक अंतर हैं। भारतीय जनमानस को अवैध घुसपैठियों और पीड़ित शरणार्थियों में अंतर समझाना होगा। ऐसा लगता है आम जन तो यह अंतर जानता-समझता (परिपक्व) है परन्तु स्वार्थी राजनैतिक तत्व इसे समझते हुए भी व्यापक भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं। किसी भी दशा में इन दोनों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जा सकता। हाल में बने नागरिकता संशोधन कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश से हिंसक उत्पीड़न के बाद भारत आये शरणार्थियों के साथ न्याय करने का प्रावधान किया गया है। गृहमंत्री अमित शाह ने ठीक कहा कि करोड़ों शरणार्थियों के लिए यह बिल है जो नारकीय जीवन जी रहे हैं। जो भारत के प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनको सुरक्षा मिलेगी। ‘नेहरू-लियाकत समझौता’ हुआ था कि दोनों देश अपने अल्पसंख्यकों का ध्यान रखेंगे। लेकिन पाकिस्तान ने इसका घोर उल्लंघन किया। पाकिस्तान व बांग्लादेश का राजधर्म इस्लाम है। विभाजन के बाद पाकिस्तान में 23 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे। जो अब तीन प्रतिशत भी नहीं हैं। बांग्लादेश में 22 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे, जो अब सात प्रतिशत रह गए हैं। या तो उनका धर्म परिवर्तन हो गया या प्रताड़ित कर उन्हें भगा दिया गया।
जो सामाजिक या धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर अपने परिवार की सुरक्षा के लिए, अपने धर्म की रक्षा के लिए यहाँ आता है, वो शरणार्थी है और जो बिना अनुमति के अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए घुस आता है वो घुसपैठिया है। विश्व के किसी भी देश में अवैध घुसपैठियों का समर्थन नहीं किया जाता है। बल्कि उनको राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना जाता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है। लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति अपरिहार्य होती है। अवैध घुसपैठियों का मसला भी ऐसा ही है। इस पर पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर सहमति दिखाई देनी चाहिए। लेकिन भारत में नागरिकता संशोधन कानून पर ऐसी सहमति नहीं दिखाई दी। ऐसा लगा कि घुसपैठियों का समर्थन करने वाले दुर्लभ नेता भारत में ही मिलते हैं।
उनके आचरण से यही लगा कि वह शरणार्थी और अवैध घुसपैठियों के बीच अंतर को ही नहीं समझना चाहते। हिंदू मतावलम्बियों के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश में दशकों से क्या हुआ, यह सब जानते हैं। विभाजन के समय इनकी वहां कितनी संख्या थी, अब कितनी रह गई, यह भी जगजाहिर है। ऐसे पीड़ित परिवारों को भारत में ही शरण मिलना संभव है। केंद्र सरकार ने इस ओर ध्यान दिया। इसकी सराहना होनी चाहिए थी।
घुसपैठियों के साथ रियायत नहीं की जा सकती। इस पर कई दशक पहले ही रोक लगनी चाहिए थी। लेकिन कम्युनिस्ट मानसपुत्रों व आजादी के बाद की सरकारों ने वोटबैंक की सियासत को तरजीह दी। इनके नाम मतदाता सूची में आ गए। भारतीय संसाधनों व सरकारी सुविधाओं में इनकी अवैध हिस्सेदारी हो गई। इस स्थिति को रोकने के लिए ही वर्तमान सरकार ने राष्ट्र हित में इतना बड़ा कदम उठाया है।
विश्वविद्यालयी छात्रों की आड़ में विपक्ष घुसपैठियों के समर्थन में लचर तर्क दे रहा है। मुसलमान, दलित का नाम लेकर सियासत कर रहा है। जबकि, भारत के किसी भी नागरिक को इससे कोई फर्क पड़ना ही नहीं है। यह राष्ट्रीय हित व जिम्मेदारी के अनुकूल उठाया कदम है। यह तो अवैध घुसपैठियों के लिए है। लोकसभा में तो विपक्ष के नेता के तर्क बेहद दयनीय थे। उन्होंने कहा कि सरकार मुसलमानों को भगाना चाहती है। अधीर ने गंगा-यमुना तहजीब की दुहाई दी। बात सही है, लेकिन नागरिकता बिल का इससे कोई मतलब नहीं है। यह तहजीब घुसपैठियों के लिए नहीं है। इसमें जाति-मजहब का मुद्दा जोड़ना बेमानी है।
पूर्व में भी बंगाली शरणार्थियों के लिए दंडकारण्य योजना, बांग्लादेश निर्माण संकट और अफ्रीकी देश युगांडा से भारतीयों के निष्कासन के घटनाक्रम से प्रभावित लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई थी। ऐसे में नागरिकता संशोधन विधेयक के माध्यम से अनेक कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया है। अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर निकालना और भारत के राष्ट्रभाव से जुड़े शरणार्थियों को नागरिकता देना उचित है।