स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। तुलसीदास जी ने कहा है ‘पराधीन सपनेहुँ सुखनाहीं’ अर्थात् पराधीनता में तो स्वप्न में भी सुख नहीं है। पराधीनता तो किसी के लिए भी अभिशाप है। स्वतंत्रता सबको प्रिय है। क्योंकि स्वतंत्रता मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिए छटपटाता है। हमारे देश में लगभग 1000 वर्षों तक विदेशी आक्रमण होते रहे। ग्रीक, हूण, शक, यवन और मुगल शासन की प्रताड़ना सहते हुए अपने सांस्कृतिक और अध्यात्मिक विरासत का जतन बड़ी सजगता के साथ हमारे पूर्वजों ने किया। तब जाकर हमारी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हो सकी।
इसके बाद अंग्रेज आए और लगभग 200 वर्षों तक उन्होंने हमारे भारतवर्ष पर शासन किया। यह एक ऐसा शासन था जिसने वास्तव में हमारे देशवासियों के मन को गुलाम करने में सफलता पायी। देश अपना, भूमि अपनी, खेत अपने, इतिहास अपना, लोग अपने फिर भी सब पर शासन अंग्रेजों का ही चलता था। हम नहीं चाहते थे कि अपने भूमि, भवन, धर्म, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था पर अंग्रेजों की अधीनता रहे। इसलिए तो हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया, हजारों देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहूति दी, लाखों परिवारों इस स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और अंततोगत्वा 15 अगस्त, 1947 को हमारा देश ‘भारत’ स्वतंत्र हुआ। पर क्या हम हमारे बलिदानी वीरों के ‘त्याग और सेवा’ प्राप्त स्वाधीनता के मोल को समझ पाए हैं, इस पर विचार अवश्य होना चाहिए।
स्वतंत्रता का श्रेय केवल ‘एक’ को नहीं
कई लोग कहते हैं कि देश को स्वतंत्रता अहिंसा से मिली, यह स्वतंत्रता महात्मा गाँधी ने दिलाई। कई लोग कहते है कि अंग्रेजों ने भारत को लूटकर छोड़ दिया और हमें स्वतंत्रता मिल गई। स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के साथ युद्ध नहीं करना पड़ा। कई बुद्धिजीवी तो यहाँ तक कहते हैं कि अंग्रेज नहीं होते तो यहाँ लोकतंत्र नहीं होता और न ही देश में कोई विकास हो पाता। ये सही है कि महात्मा गाँधी ने ‘स्वतंत्रता’ की इच्छा को जन मन में जगाया, उन्होंने इसे आन्दोलन का स्वरूप दिया। पर केवल अहिंसक आन्दोलन के प्रभाव से अंग्रेजों ने भारत को नहीं छोड़ा। भारत के अन्दर युवा क्रांतिकारियों के बलिदान के प्रति भारतवासियों के मन में अपार श्रद्धा थी, उनसे लाखों लोग देश के लिए मर मिटने के लिए प्रेरित हुए थे।
एक तरफ सशस्त्र क्रांतिकारी, दूसरी ओर अहिंसक आन्दोलन (सत्याग्रह)। स्वतंत्रता आन्दोलन में जहाँ चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारियों के संगठन का नेतृत्व किया, वहीं महात्मा गाँधी ने अहिंसक आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने एक ओर आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व किया, वहीं दूसरी ओर स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भारतीय युवाओं को सेना में शामिल होने का आह्नवान किया। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और अंग्रेजों को सैनिकों की आवश्यकता थी। अंग्रेज अपने स्वार्थ के लिए भारतीय युवाओं को सैनिक शिक्षा देने को तैयार थे। तब सावरकर ने इस अवसर का लाभ लेने के लिए युवाओं से कहा, “एकबार सैनिक शिक्षा ले लो और जब जरुरत पड़ेगी तो तय कर लेना कि बंदूक की गोली किस ओर चलाना है। सावरकर की प्रेरणा काम कर गई और युवा भारत सैनिक प्रशिक्षण में शामिल होने के लिए दौड़ पड़े। अंग्रेज डर गए कि जब सारे युवा सैनिक बन गए तो वे अंग्रेजों से लड़कर बुरी तरह समाप्त कर देंगे। अंग्रेजों का यह भय स्वाभाविक था क्योंकि लाखों युवा सैनिक प्रशिक्षण ले चुके थे।
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को स्वतंत्रता प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में महात्मा गाँधी, तिलक, पटेल, मंगल पांडे, खुदीराम बोस, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, चंद्र शेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ आदि लोगों के नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं जिन्होंने अपने देश हित को अपने स्वार्थ के ऊपर वरीयता दी। वहीं रानी लक्ष्मीबाई, वेलु नचियार, कित्तूर रानी चेन्नम्मा, अरुणा आसफ अली, सावित्रीबाई फुले और सरोजिनी नायडू जैसी स्त्रियों का आत्मोत्सर्ग आज भी युवतियों के लिये प्रेरणास्वरूप है।
स्वतंत्रता का मूल्य प्राण है, देखे कौन चुकाता है।
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।
सकल मोह ममता को तज कर माता जिसको प्यारी हो।
शत्रु का हिय छेदन हेतु जिसकी तेज कटारी हो।
मातृभूमि के राज्य तज जो बन चुका भिखारी हो।
अपने तन-मन धन जीवन का स्वयं पूर्ण अधिकारी हो।
आज उसी के लिए समाज सकल ये,
भुज अपने फैलाता है।
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।।
कष्ट कंटको में पड़ करके जीवन पट झीने होंगे।
काल कूट के विषमय प्याले प्रेम सहित पीने होंगे।
अत्याचारों की आँधी ने कोटि सुमन छीने होंगे।
एक तरफ संगीने होंगी एक तरफ सीने होंगे।
वही वीर अब बढे जिसे हँस -हँस कर मरना आता है।
देखे कौन -सुमन शय्या ताज कंटक अपनाता है।।
स्वतंत्रता का दुरुपयोग
गुलामी मानसिकता के लोग स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग और बलिदान का महत्त्व न पहले समझते थे और न ही अब। इसलिए आज स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने में इन्हें मजा आता है।
दूसरी ओर स्वतंत्रता दिवस के उत्सव को मनाने का तरीका भी देखिए। विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विभिन्न संस्थानों में तिरंगा फहराया जाता है। कुछ क्षण बलिदानियों को याद किया जाता है। वहीं देश की युवा पीढ़ी मोटरसाइकिल पर सवार होकर, हाथों में तिरंगा लेकर सड़कों पर डीजे की कर्कश आवाज के साथ इस उत्सव को मनमानी ढंग से सेलिब्रेट करते दिखाई देते हैं। ये ‘देशभक्ति’ भी आज की पीढ़ी के लिए बड़ी कमाल की चीज हो गई है। फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप प्रोफाइल या चेहरे, कपड़े अथवा ब्रेसलेट पर तिरंगा लगा लो तो आप देशभक्त बन जाते हैं। क्या यही देशभक्ति है? तिरंगे का आदर तो होना ही चाहिए क्योंकि वह हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज है। पर केवल तिरंगे का प्रोफाइल फोटो बना देनेभर से क्या हमारी देशभक्ति साबित हो जाती है? क्यों क्रिकेट मैचों में, 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही जागती है हमारी लिमिटेड राष्ट्रभक्ति? इस बात पर भी चिन्तन होना चाहिए।
स्वतंत्रताः सीमाविहीन या सीमाबद्ध
स्वतंत्रता के कई रूप हो सकते हैं यथा आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता आदि। स्वतंत्रता के यह सभी रूप न सिर्फ व्यक्ति अपितु देश के सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक होते हैं। अगर एक स्त्री को स्वतंत्रता मिलती है तो उसका रूपांतरण कल्पना चावला जैसी अंतरिक्ष वैज्ञानिक के रूप में होता है और जापान जैसा लघु देश विशालतम सफलता को अर्जित करता है। विदित है कि भारत विश्व का विशालतम प्रजातांत्रिक देश है एवं यहाँ प्रत्येक नागरिक को आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त है जो उसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों के रूप में प्रदान किये गए हैं। लेकिन एक व्यक्ति का अधिकार या उसकी स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति के अधिकारों या उसके स्वतंत्रता में बाधक नहीं होना चाहिए। यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता को अनुशासन के दायरे से सीमित किया जाए, क्योंकि असीमित स्वतंत्रता भी अंततः जीवन एवं सामाजिक व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन में बाधा पहुँचाती है।
आज आवश्यकता है कि व्यक्तिगत स्तर के अलावा उन वैश्विक रूप से विद्यमान मानसिकता में भी परिवर्तन लाया जाए जो मानवता के उसके सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने में बाधक रहा है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में प्राप्त स्वतंत्रता का स्वरूप कहीं ना कहीं विकृत हो गया है। इसका उदाहरण हमें आतंकवाद, क्षेत्रवाद, दुर्जय बीमारियों और संहारक युद्ध के रूप में देखने को मिलता है। वर्तमान समय में इस स्थिति को दूर करने के लिये ऊपर से आरोपित अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन युक्त स्वतंत्रता की आवश्यकता है।
स्वतंत्रता मिली है – ‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना से, समर्पण और बलिदान से।’’ राष्ट्र का उत्थान भी होगा देशभक्ति भाव के जागरण से। आइए, ‘‘देशभक्ति फिर जगे, देश का ये प्राण है’’ इस भाव का जागरण कर समाज में राष्ट्र चेतना का अलख जगाएँ। यह हमारा सौभाग्य है कि हमने भारत की पुण्यभूमि पर जन्म लिया और आजादी के सुंदर वातावरण में साँस ली। देश प्रेम एक पवित्र भाव है जो हर नागरिक में होना अनिवार्य है।
संदीप आमेटा