काव्य में लालित्य, उपमा और ओज तीनों गुणों को समाहित कर संस्कृति साहित्य में शब्द गौरव का स्थापित करने वाले महाकवि माघ राजस्थान के महानतम् कवि हैं। शायद लोगों को पता नहीं लेकिन जिस प्रकार तुलसी के काल में कवियों की तुलना करते हुए लिखा गया है कि –
सूर सूर तुलसी ससी, उडगण कैशव दास।
बाकी कवि खद्यौत सम, कबहू करत प्रकास।।
अर्थात्
भारतीय क्षेत्रीय भाषा काव्यों में सूरदास सूर्य और तुलसीदास चन्द्र के समान है। वहीं केशवदास का स्थान तारों के समान माना गया है। बाकि के कवि जुगनू के समान है जो सिर्फ अंधकार में कुछ क्षण टिमटिमाकर अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ इनसे करीब 800 वर्ष पूर्व राजस्थान की धरती को सम्मानित करने के लिए श्रीमाल (भीनमाल) में जन्में महाकवि माघ के सम्बंध में कहा गया है कि –
उपमा कालिदासस्य
भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं
माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।
अर्थात
कालिदास उपमा में, भारवि अर्थगौरव में, और दण्डी पदलालित्य में बेजोड़ हैं। लेकिन माघ में ये तीनों गुण हैं।
श्रीमाल उन दिनों यह गुजरात का एक प्रधान नगर था। बहुत दिनों तक यह राजधानी तथा विद्या का मुख्य केन्द्र था। प्रसिद्ध ज्योतिष ब्रह्मगुप्त ने 624 ई. के आसपास अपने ‘ब्रह्मगुप्तसिद्धांत’ को यहीं बनाया। उन्होंने अपने को भीनमल्लाचार्य लिखा है। चीनी यात्री ह्नेनसांग ने इस नगर का वर्णन किया है। स्कंदपुराण के श्रीमालमाहात्म्य में इसकी महत्ता अंकित है। यहाँ के श्रेष्ठ ब्राह्मण वास्तुकला का अध्ययन करते थे। सूर्य पूजा से इसा नगर का घनिष्ठ संबंध था। यहाँ की झील के निकट जगत्स्वामी सूर्य के मन्दिर की एक विशालकाय भग्न मूर्ति है जो इस नगर का प्राचीनतम अवशेष है। माघ भी सूर्य-पूजक थे, जिसके कारण इस महाकाव्य के एकादश सर्ग में उन्होंने सूर्य का वर्णन अन्य सभी कवियों की अपेक्षा अधिक किया है। श्रीमाल में संस्कृत विद्या का महान् केन्द्र था, अनेक विद्याएँ यहाँ पढ़ायी जाती थीं और माघ ने उन सभी का गहन अध्ययन किया।
माघ संस्कृत के महाकाव्य ‘शिशुपालवध’ के रचियता थे। राजस्थान से प्राप्त संस्कृत काव्यों में इसे सबसे प्राचीन माना गया है। माघ का जन्म श्रीमाल के एक प्रतिष्ठित धनी श्रीमाली ब्राह्मण-कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम दत्तक था। उनकी पत्नी का नाम विद्यावती था। वे सर्वश्रेष्ठ संस्कृत महाकवियों की त्रयी माघ, भारवि, कालिदास में अन्यतम हैं। उन्होंने शिशुपाल वध नामक केवल एक ही महाकाव्य लिखा। इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदि नरेश शिशुपाल के वध का सांगोपांग वर्णन है।
माघ के जीवन की रोचक घटना
माघ के संबंध में एक कथा मिलती है कि माघ काव्य-रचना करके जब अपने पिता को दिखाते तो पिता उन्हें उत्साहित करने के स्थान पर काव्य की निन्दा करते। इस पर माघ ने पूरा काव्य लिखकर उसे रसोईघर में रख दिया। जब वह पुस्तक प्राचीन पाण्डुलिपि के समान लगने लगी तब माघ ने उसे अपने पिता को दिखाया। पिता ने यत्र-तत्र अवलोकन करके आनन्द से सिर हिलाते हुए कहा कि यही वास्तविक कविता है, तुम भी इसी के समान लिखा करो। माघ ने जब वस्तुस्थिति बतलायी तब पिता ने शाप दिया कि तुमने मुझसे छल किया है, अतः तुम्हारी काव्य सीमा यहीं तक होगी, अब तुम कुछ लिख नहीं पाओगे। इसके बाद उनके पिता की मृत्यु हो गयी और अपार धन के स्वामी बन जाने से माघ का जीवन विलासमय हो गया। वस्तुतः वे काव्य- रचना में असमर्थ हो गये। किन्तु इस काव्य ने माघ को देश- देशान्तर में विख्यात कर दिया।
माघ को संस्कृत आलोचकों व विद्वानों द्वारा प्रायः एक प्रकाण्ड सर्वशास्त्रतत्त्वज्ञ विद्वान् माना जाता है। दर्शनशास्त्र, संगीतशास्त्र तथा व्याकरणशास्त्र में उनकी विद्वत्ता थी। उनका पाण्डित्य एकांगी नहीं, प्रत्युत सर्वगामी था। अतएव उन्हें ‘पण्डित-कवि’ भी कहा गया है। महाकवि भारवि द्वारा प्रवर्तित ‘अलंकृत शैली’ का पूर्ण विकसित स्वरूप माघ के महाकाव्य ‘शिशुपालवध’ में प्राप्त होता है, जिसका प्रभाव बाद के कवियों पर बहुत ही अधिक पड़ा।
घंटा माघ
शिशुपालवध में रेवतक पर्वत की हाथी से और हाथी के बंधे घंटे की तुलना नहीं बल्कि रेवतक पर्वत के दोनों ओर जो सूर्य और चन्द्रमा है, उसकी उपमा स्वर्ण और रजत से निर्मित घंटे से की गई है। अतः माघ को घंटा माघ कहा जाता है। यही कारण है कि उनके द्वारा विरचित ‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य को संस्कृत की वृहत्त्रयी में विशिष्ट स्थान मिला है। महाकवि ‘माघ’ ने काव्य के अन्त में प्रशस्ति के रूप में लिए हुए पाँच श्लोकों में अपना स्वल्प परिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य में यत्र-तत्र निबद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूप रेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्म स्थान तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है।
प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्तिरूप में लिखे इन पाँच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है। केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है। इसी प्रकार 15वें सर्ग में प्रथम 39वें श्लोक के पश्चात् द्वयर्थक 34 श्लोक रखे गए हैं। इसके पश्चात् 40वाँ श्लोक है। यहीं से मल्लिनाथ ने उनकी व्याख्या नहीं की है उसी प्रकार प्रशस्ति के पाँच श्लोकों को भी प्रक्षिप्त मानकर मल्लिनाथ ने व्याख्या नहीं की है। किन्तु मल्लिनाथ के पूर्ववर्ती टीकाकार वल्लभदेव ने उन 34 श्लोकों तथा कविवंश वर्णन के पाँच श्लोकों की टीका लिखी है।
भारवि और माघ
माघ के महाकवि होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। बहुतों का अनुमान है कि माघ ने साम्प्रदायिक प्रेम से उत्तेजित होकर अपने पूर्ववर्ती भारवि से बढ़ जाने के लिए बड़ा प्रयत्न किया है। भारवि शैव थे अथवा कम से कम शिव के बड़े भक्त थे। इनका काव्य शिव के वरदान के विषय में है। माघ वैष्णव थे। इन्होंने महाकाव्य में विष्णु-विषयक महाकाव्य की रचना की है। अतएव महाकाव्य में विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के मारे जाने का विस्तृत वर्णन है। वह स्वयं अपने ग्रन्थ को ‘लक्ष्मीपतेश्रच्रिततकीर्तमनमात्रचारू’ कहते हैं। भारवि से बढ़ जाने के लिए माघ ने कुछ भी नहीं उठा रखा है। ‘किरातार्जुनीय’ को अपना आदर्श मानकर भी माघ ने अपने काव्य में बहुत कुछ अलौकिक चमत्कार पैदा किया है। किरात के समान ही माघकाव्य भी मंगलार्थक ‘श्री’ शब्द से आरम्भ होता है। करात के आरम्भ में ‘श्रियः कुरूणामधिपस्य पालिनी’ है, उसी प्रकार माघ के प्रारम्भ में ‘श्रियः पतिः श्रीमति शासिंतु जगत्’ है।
भारवि ने किरत में प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में ‘लक्ष्मी’ शब्द का प्रयोग किया है। माघ ने भी इसी तरह अपने काव्य के सर्गान्त पद्यों में ‘श्री’ का प्रयोग किया है। शिशुपालवध तथ किरातार्जुनीय के वर्णन-क्रम में भी समानता है। दोनों महाकाव्यों के प्रथम सर्ग में सन्देश कथन है- किरात में वनेचर के द्वारा युधिष्ठिर के पास, माघ में नारद के द्वारा श्रीकृष्णचन्द्र के सामने। दूसरे सर्ग में राजनीतिक कथन है। किरात में भीम के कथन के अनन्तर व्यासजी के उपदेशानुसार कार्य किया गया है। इस प्रकार दोनों में समानता होने पर भी किरात और माघ में बड़ी भिन्नता है। कहीं-कहीं भारवि की छाया माघ पर दीख पड़ती है। परन्तु माघ की संस्कृत साहित्य में कुछ ऐसी विशेषता है जो भारवि में देखने को न मिलेगी। इसीलिए रसिक जन माघ के सामने भारवि को हीन समझते हैं- तावद्भ भारवेर्भति यावन्माघस्य नोदयः।