महान हिन्दू शासक छत्रपति शिवाजी महाराज अदम्य साहसी योद्धा और कुशल शासक थे। वे साहस और शौर्य की अप्रतिम मिसाल थे। माता जीजाबाई द्वारा दिए गए संस्कारों के कारण ही शिवाजी महाराज महान बने। छत्रपति शिवाजी भारतीय इतिहास के एक आदर्श नायक हैं। वस्तुतः एक धीरोदात्त नायक के जो लक्षण बताए जाते हैं, सबका उनमें समावेश है। उनके गुणों से आकृष्ट होकर अनेक भाषाओं के भारतीय साहित्यकारों ने उन्हें अपनी लेखनी का विषय बनाया है।
रायरेश्वरसह्याद्रीच्या कडेकपारी, शिवमंदिर एक।
तिथे रायरेश्वर स्कयंभू शिकलिंग सुरेख।।
आणाभाका झाल्या आमुच्या, त्याच्या साक्षीने।
एकजुटीने राहून कोणा अंतर न देणे।।
देशासाठी, धर्मासाठी झोकून देऊ उडी।
मावले आम्ही शिवबाचे सकंगडी।।
(अर्थः सह्याद्रि पर्वत के एक शिखर पर स्थित रायरेश्वर का स्वयंभू शिवलिंग है। उन्हीं के समक्ष हमने शपथ ग्रहण की। हम मिल-जुलकर रहेंगे। किसी को हमसे दूर नहीं होने देंगे। देश और धर्म के लिए स्वयं को झोक देंगे। हम मावले शिवाजी के मित्र हैं।)
एक अन्य अवसर पर अपने सभासदों को संबोधित करते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा कि आप एक निश्चित आदर्श के लिये लड़ रहे हैं, एक निश्चित पताका के लिये लड़ रहे हैं। और ये राज्य मेरे बारे में नहीं है, ‘हे स्वराज्य व्हावे ही श्रींची इच्छा’, ये स्वराज्य परमेश्वर की इच्छा है, ये मेरी इच्छा नहीं है, ये छत्रपति शिवाजी का स्वराज्य नहीं है, ये परमेश्वर की इच्छा है जिसके लिये तुम लड़ रहे हो और यही आदर्श है जो अगले 27 वर्षों तक सबके हृदयों में प्रदीप्त होता रहा। उनका जन्म माता जीजाबाई के गर्भ से फाल्गुन वदी 3 शक संवत 1551 अर्थात् शुक्रवार 19 फरवरी 1630 ई. को शिवनेर दुर्ग में हुआ था।
शिवाजी सहित माता जीजाबाई ने छह पुत्रों को जन्म दिया। दुर्भाग्य से चार पुत्रों की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई। शेष दो पुत्रों में जेष्ठ पुत्र का नाम संभाजी था। शिवाजी का जन्म शिवनेरी किले में हुआ था और उनका नाम भौसले वंश की कुल देवी शिवाई के नाम पर शिवाजी रखा गया था।
शिवाजी का बाल्यकाल कोई सुखद नहीं कहा जा सकता। उन्हें अपने पिताजी का संरक्षण भी नहीं के बराबर मिला। ऐसी परिस्थितियों में भी उनके द्वारा एक स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना निश्चय ही एक आश्चर्य कहा जा सकता है। आश्चर्य के पीछे जिन दो महान विभूतियों का हाथ रहा वह है माता जीजाबाई और दादाजी कोंडदेव। इन्हीं दो मार्ग दर्शकों की छत्रछाया में शिवाजी का बाल्यकाल बीता और उनके भावी जीवन की नींव पड़ी।
धार्मिक संस्कारों का निर्माण
उनका बचपन उनकी माता जिजाऊ के मार्गदर्शन में बीता। माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरांगना थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियाँ सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोंडदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत समर्थ रामदास के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।
बचपन में खेल खेल में सीखा किला जीतना
बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुँची। अत्याचारी किस्म के तुर्क, यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के चिंतित होने लगे थे।
विजिगीषु शिवाजी
युग प्रवर्तक छत्रपति शिवाजी का नाम किसी भी भारतीय के लिए अब अपरिचित नहीं है। जिस समय समस्त भारतवर्ष मुगलों की सत्ता के अधीन हो चुका था, शिवाजी ने एक स्वतंत्र हिंदू राज्य की स्थापना करके इतिहास में एक सर्वथा नवीन अध्याय की रचना की। अपने इस सकल प्रयत्न के माध्यम से उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि हिंदुओं की आत्मा अभी सोई नहीं है। ऐसा प्रशंसनीय कार्य शताब्दियों से किसी हिंदू के हाथों संपन्न नहीं हुआ था। उनके जीवन में पिता का योगदान नहीं के बराबर रहा था। पिता शाह जी ने माता जीजाबाई और दादाजी कोंडदेव के संरक्षण में पुणे की जागीर सौंप देने के बाद उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री ही समझ ली थी। परिणामस्वरूप उनकी शिक्षा-दीक्षा भी समुचित रूप से नहीं हो पाई, फिर भी उन्होंने अपने बल पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
वस्तुतः सिंह का ना तो कोई अभिषेक करता है और ना कोई अन्य संस्कार ही। वस्तुतः वह अपने बल पर ही वनराज की पदवी प्राप्त करता है।
तुलजा भवानी के उपासक
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में स्थित है तुलजापुर। एक ऐसा स्थान जहाँ छत्रपति शिवाजी की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी स्थापित हैं, जो आज भी महाराष्ट्र व अन्य राज्यों के कई निवासियों की कुलदेवी के रूप में प्रचलित हैं। वीर श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज की कुलदेवी माँ तुलजा भवानी हैं। शिवाजी महान उन्हीं की उपासना करते रहते थे। मान्यता है कि शिवाजी को खुद देवी माँ ने प्रकट होकर तलवार प्रदान की थी। अभी यह तलवार लंदन के संग्रहालय में रखी हुई है।
अप्रतिम राजनीतिज्ञ चातुर्य, अद्वितीय बुद्धिमता, अद्भुत साहस प्रशंसनीय चरित्र बल आदि गुण शिवाजी के चरित्र की विशेषताएँ हैं। अपने धर्म, संस्कृति राष्ट्र आदि के प्रति परम आस्थावान होते हुए भी वह सभी धर्मों के प्रति आदर और अन्य संप्रदाय के लोगों के प्रति पूर्ण सद्भावना रखते थे। उनकी राजनीति में धार्मिक और जातीय भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं था। शिवाजी वस्तुतः महान थे। शिवाजी के गुणों की प्रशंसा उनके शत्रु भी किया करते थे। अनेक पाश्चात्य समीक्षकों ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। शिवाजी का आदर्श हमारी वर्तमान राष्ट्रीयता के लिए भी सामयिक हैं।
समर्थ रामदास
‘हिन्दू पद पादशाही’ के संस्थापक शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी का नाम भारत के साधु-संतों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। उन्होंने ‘दासबोध’ नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की थी, जो मराठी भाषा में है। सम्पूर्ण भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। उन्हें अखाड़ों की स्थापना का श्रेय जाता है इसीलिए उन्हें भगवान हनुमानजी का अवतार माना गया क्योंकि हनुमानजी के परम भक्त थे। छत्रपति शिवाजी महाराज अपने गुरु से प्रेरणा लेकर ही कोई कार्य करते थे। छत्रपति महाराजा शिवाजी को ‘महान शिवाजी’ बनाने में समर्थ रामदासजी का बहुत बड़ा योगदान रहा।
धोखे से जब शिवाजी को मारना चाहा
शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आगबबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया।
तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खाँ को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बाँहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर चतुर शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएँ अपने सेनापति को मरा पाकर वहाँ से दुम दबाकर भाग गईं।
मुगलों से टक्कर
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। लेकिन सुबेदार को मुँह की खानी पड़ी। शिवाजी से लड़ाई के दौरान उसने अपना पुत्र खो दिया और खुद उसकी अंगुलियाँ कट गई। उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। इस घटना के बाद औरंगजेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी।
शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के किले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई. को ‘व्रजगढ’ के किले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के किले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक ‘मुरार जी बाजी’ मारा गया। पुरन्दर के किले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गए और 22 जून, 1665 ईको ‘पुरन्दर की सन्धि’ सम्पन्न हुई।
शिवाजी ने अपने धर्म की रक्षा करते हुए इस्लाम अथवा किसी भी अन्य धर्म के प्रति कभी घृणा का परिचय नहीं दिया। वे मुसलमान फकीरों का भी उतना ही सम्मान करते थे जितना हिंदू साधु संतों का। वे समर्थ रामदास आदि के प्रति श्रद्धावान थे। जाति धर्म आदि के आधार पर नियुक्ति के लिए उनके राज्य में कोई स्थान नहीं था। उनकी नौसेना के मुख्य अधिकारी दौलत खाँ और सिद्दी थे तथा परराष्ट्र मंत्री मुल्लाह हैदर मुसलमान थे। इन कर्मचारियों पर उन्हें पूर्ण विश्वास था। मल्लाह हैदर एक बार राज्यपाल बहादुर खाँ के पास शांति वार्ता के लिए शिवाजी का दूत बनकर भी गया था।
गोरिल्ला युद्ध के अविष्कारक
कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी ने ही भारत में पहली बार गुरिल्ला युद्ध का आरम्भ किया था। उनकी इस युद्ध नीति से प्रेरित होकर ही वियतनामियों ने अमेरिका से जंग जीत ली थी। इस युद्ध का उल्लेख उस काल में रचित ‘शिव सूत्र’ में मिलता है। गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पाश्र्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं।
धवल चरित्र के धनी
छत्रपति शिवाजी महाराज जितने तलवार के धनी थे उतने ही वह चरित्र के भी धनी थे। अपने चरित्र और तलवार को उन्होंने कभी दागदार नहीं होने दिया। एक बार शिवाजी के वीर सेनापति ने कल्याण का किला जीता। हथियारों के जखीरे के साथ उनके हाथ अकूत संपत्ति भी लगी। एक सैनिक ने मुगल किलेदार की बहू को, जो दिखने में काफी सुंदर थी, उसके सामने पेश किया। वह सेनापति उस नवयौवना के सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। सेनापति ने शिवाजी महाराज को बतौर नजराना उस महिला को भेंट करने की ठानी।
सेनापति उस नवयौवना को एक पालकी में बिठाकर शिवाजी महाराज के दरबार में पहुँचा। शिवाजी उस समय अपने सेनापतियों के साथ शासन-व्यवस्था के संबंध में विचार-विमर्श कर रहे थे। युद्ध में जीतकर आए सेनापति ने शिवाजी को प्रणाम किया और कहा कि महाराज वह कल्याण से जीतकर लाई गई एक चीज को आपको भेंट करना चाहता है। यह कहकर उसने एक पालकी की ओर इंगित किया।
शिवाजी ने ज्यों ही पालकी का पर्दा उठाया तो देखा कि उसमें एक सुंदर मुगल नवयौवना बैठी हुई है। शिवाजी महाराज का शीश लज्जा से झुक गया और वह बोले, ‘काश! हमारी माता भी इतनी खूबसूरत होती तो मैं भी खूबसूरत होता।’ इसके बाद अपने सेनापति को डाँटते हुए उन्होंने कहा कि ‘तुम मेरे साथ रहते हुए भी मेरे स्वभाव को समझ नहीं सके। शिवाजी दूसरे की माता-बेटियों को अपनी माँ के समान मानता है। अभी इनको ससम्मान इनकी माता के पास छोड़कर आओ।’
औरंगजेब तथा शिवाजी के स्वधर्म प्रेम की तुलना करते हुए एक वर्थ ने लिखा है, ‘‘उनके शक्ति संपन्न शत्रु औरंगजेब की अपेक्षा शिवाजी का चरित्र बहुत ही उच्च है। धर्म दोनों का सर्वोपरि अंग था। औरंगजेब में वह पतित होकर तुच्छतम्, संकीर्णतम् और धर्मांधता के रूप में था। औरंगजेब का जन्म केवल विनाश का कारण बनने के लिए हुआ था। शिवाजी ईश्वर का अवतार हैं जो हिंदू विजय और राज्य स्थापना का कारण बना।’’
लोकेश जोशी