जनजातीय व वनवासी समाज की प्रतिष्ठा, उसके रक्षण व विकास की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। प्रकृति पूजन हमें वेदों से प्राप्त हुआ जिसके प्रति नगरीय समाज की अपेक्षा जनजातीय समाज अधिक आग्रही रहा। जनजातीय समाज रक्षण का पात्र नहीं अपितु शेष समाज का रक्षक भी रहा है ऐसी मान्यता का परिचय भी हमें प्राचीन भारतीय परम्पराओं व लेखन से मिलता रहा है। मूल निवासी दिवस की चर्चा करें तो ध्यान आता है कि हमारी नर्मदा घाटी ही मानव प्रजाति की जन्मदाता रही है। नर्मदा किनारे जन्मी इस सभ्यता में नगरीय व वन कंदराओं में निवास करने वाले बंधु दोनों का ही अपना अपना महत्व व भूमिका थी। दोनों ही समाज अपने उत्पादनों व वृत्तियों के आधार पर परस्पर निर्भरता के सिद्धांत से जीवन यापन करते हुए वैदिक धर्म को ही भिन्न रूपों में माना करते थे।
शिव उपासना वैदिक धर्म का एक अविभाज्य अंग रहा है जिसे वन कंदराओं में रहने वाले जनजातीय बंधुओं ने भी आगे बढ़ाया व नगरीय समाज ने भी। वेदों, शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रुतियों, पृथ्वी के सरंचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययनों आदि के आधार पर जो तथ्य सामनें आते हैं उनके अनुसार पृथ्वी पर प्रथम जीव की उत्पत्ति गोंडवाना लैंड पर हुई थी, जिसे तब पेंजिया कहा जाता था। पेंजिया गोंडवाना व लारेशिया को मिलाकर बना था। गोंडवाना लैंड के अमेरिका, अफ्रीका, अंटार्कटिका, आस्ट्रेलिया एवं भारतीय प्रायद्वीप में विखंडन के पश्चात यहां के निवासी अपने-अपने क्षेत्र में बंट गए थे।
जीवन का विकास सर्वप्रथम भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप में नर्मदा नदी के तट पर हुआ जो विश्व की प्राचीनतम नदी है। यहाँ बड़ी मात्रा में डायनासोर के अंडे व जीवाश्म प्राप्त होते रहे हैं। नर्मदा घाटी की खुदाई से मिले तथ्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय संस्कृति व वैदिक सभ्यता विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्यप्रदेश के भीम बैठका में पाए गए 25 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई, तथा मेहरगढ़ के अलावा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि, विश्व के प्राचीनतम आदिमानव की कर्मभूमि रही है।
यही आदिमानव वैदिक या सनातन संस्कृति की जन्मदाता थे। डाॅ. शशिकांत भट्ट की पुस्तक नर्मदा वैलीः कल्चर एंड सिविलाइजेशन में, नर्मदा घाटी सभ्यता के विषय में में विस्तार से उल्लेख मिलता है। भट्ट के अनुसार अनुसार नर्मदा किनारे मानव खोपड़ी का पाँच से छः लाख वर्ष पुराना जीवाश्म मिला है जो सनातन धर्म के सर्वाधिक प्राचीन धर्म होने के अकाट्य प्रमाण को वैश्विक पटल रखता है। पौराणिक ग्रंथों में जिस“रेवाखंडे” शब्द का सहज प्रयोग स्थान स्थान पर मिलता है वह हमसे इस नर्मदा तट की प्राचीनता को प्रकट करता है।
इन सब तथ्यों के प्रकाश में यह विचार उपजता है कि अंततः यह मूलनिवासी शब्द और दिवस मनाने का चलन उपजा क्यों व कहाँ से? वस्तुतः यह मूलनिवासी शब्द पश्चिम के गोरों की देन है। कोलंबस दिवस के रूप में भी मनाये जाने वाले इस दिन को वस्तुतः अंग्रेजों के अपराध बोध को स्वीकार करने के दिवस के रूप में मनाया जाता है। अमेरिका से वहाँ के मूल निवासियों को अतीव बर्बरता पूर्वक समाप्त कर देने की कहानी के पश्चिमी पश्चाताप दिवस का नाम है- मूल निवासी दिवस। इस सबकी चर्चा एक अलग व वृहद अध्ययन का विषय है।
यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत विद्वेष व भेदभाव चला वह जाति व जन्म आधारित है, क्षेत्र आधारित नहीं। वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है जिससे भारत को सावधान रहनें की आवश्यकता है। आज भारत सामाजिक समरसता के नये आयाम गढ़ रहा है व यह परिवर्तन कुछ भारत विरोधी तत्वों को रास नहीं आ रहा है। इस सकारात्मक परिवर्तन के वातावरण में जहर बोने का कार्य करते हैं कुछ भारत विरोधी व विभाजन कारी लोग। मूल निवासी के एजेंडे के पीछे बहुत से ऐसे विदेशी मानसिकता के लोग खड़े हो गयें हैं व भारत के भोले भाले जनजातीय समाज के मन में विभाजन के बीज बो रहें हैं।
इसी अभियान के तहत भारतीय दलित व जनजातीय समाज में इन दिनों एक नया शब्द चल पड़ा है, ‘‘मूलनिवासी’’। इस ‘‘मूलनिवासी’’ शब्द के नाम पर एक प्राचीन षड्यंत्र को नए रूप, नए कलेवर और नए आवरण में बाँधकर एक विद्रूप वातावरण उत्पन्न करनें का प्रयास किया जा रहा है। मुझे लगता है कि इस पूरे मामले की जड़ बाबा साहब अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन के समय दो धर्मो-ं इस्लाम एवं इसाईयत में उपजी निराशा में व कम्युनिस्टों की सोच में है। ईसाइयत व इस्लाम धर्म नहीं अपनानें को लेकर बाबा साहब के विचार सुस्पष्ट रहें हैं, उन्होंने सस्वर कहा व लिखा कि उनकें अनुयायी इस्लाम व ईसाइयत से दूर रहें। किंतु आज मूलनिवासी वाद के नाम पर भारत का दलित व जनजातीय समाज एक बड़े इसाई व इस्लामी षड्यंत्र का शिकार हो रहा है।
एक बड़े और एकमुश्त धर्म परिवर्तन की आस में बैठे ईसाई धर्म प्रचारक तब बहुत ही निराश व हताश हो गए थे जब बाबासाहब अम्बेडकर ने भारतीय भूमि पर जन्में व भारतीय दर्शन आधारित धर्म में जानें का निर्णय अपनें अनुयाइयों को दिया था। कम्युनिस्ट विचार व इसाई धर्म के इसी षड्यंत्र का अगला क्रम है मूलनिवासी वाद का जन्म! भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़नें व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासी वाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है। इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुप्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने यह कहना प्रारंभ किया कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) को बाहरी आर्यों ने अपना गुलाम बनाकर यहाँ हिन्दू वर्ण व्यवस्था को लागू किया। बाबा साहेब अपने लेखन कथित आर्य व जनजातीय संघर्ष की बात को दृढ़ता से नकारते हैं।
सुव्यवस्थित भारतीय जाति व्यवस्था को मुगलों व अंग्रेजों ने षड्यंत्र पूर्वक नष्ट भ्रष्ट करने का प्रयास किया ताकि हिंदुत्व के प्राण तत्व समाप्त हो सकें। इनके षड्यंत्रों से भारत में जाति व्यवस्था अपनी दुर्गति व परस्पर विद्वेष के शिखर पर पहुँची यह बात विभिन्न अध्ययनों में स्थापित हो चुकी है। भारतीय समाज को जाति व्यवस्था के कुचक्र में बाँटे बिना और ऊँच नीच का भेद उत्पन्न किये बिना भारत में शासन करना संभव नहीं था अतः मुगलों ने इस हेतु वह सब किया जो जो वे अपनी सत्ता व सेना के भय के आधार पर कर सकते थे। बाबा साहब ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है- ‘‘आर्य आक्रमण की झूठी कथा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है जिसके कोई प्रमाण नहीं है। अम्बेडकर जी आगे लिखते हैं – इस पश्चिमी सिद्धांत का विश्लेषण करनें से मैं जिस निर्णय पर पहुंचा हूँ व निम्नानुसार है।
- वेदों में आर्य जातिवाद का उल्लेख नहीं है।
- वेदों में आर्यों द्वारा आक्रमण व उनके द्वारा उन दास व दस्युओं (दलित व जनजातीय) पर विजय प्राप्त करने का कोई प्रमाण नहीं है, जिन्हें भारत का मूल निवासी माना जाता है।
- ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यों, दासों व दस्युओं में नस्लीय भेद को प्रदर्शित करता हो।
- वेद इस बात का भी समर्थन नहीं करते कि आर्यों का रंग दासों या दस्युओं से अलग था।
अब तो संगठनों में भी ऐसा विभेद हो रहा है कि लोग अभिवादन में ‘जय भीम’ की जगह ‘जय मूलनिवासी’ बोलने लगे हैं। ये लोग कहते हैं कि वे मूलनिवासी हैं और बाकी सारे लोग विदेशी हैं। वस्तुतः सच्चाई यह है कि भारत में रह रहे सभी ‘‘मूल भारतीय’’ यहाँ के मूलनिवासी हैं। हजारों वर्षों के मानव समाज के विकास के बाद किसी समाज के द्वारा आज मूलनिवासी होनें का दावा करना अपने आप में एक दिवास्वप्न जैसा लगता है, क्योंकि इस वृहद कालखंड में सभी मानव सभ्यताओं में बड़े पैमानें पर रक्त मिश्रण हुआ है। आज रक्त के आधार पर कोई भी अपनी नस्ल की शुद्धता का दावा नहीं कर सकता।
बाबा साहेब कहते हैं कि ‘‘इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और यूरोपीय होने के नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हैं, इस श्रेष्ठता को यथार्थ सिद्ध करने के लिए उन्होंने इस सिद्धांत को गढ़ने का काम किया। आर्यों को यूरोपीय मान लेने से उनकी रंग-भेद की नीति में विश्वास आवश्यक हो जाता है और उसका साक्ष्य वे चतुर्वण -व्यवस्था में खोज लेते हैं।’’
वस्तुतः इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूँजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसी के रूप में आकर इस विभाजक रेखा को जन्म देकर पाल पोस रहा है। आर्य कहाँ से आये व कहाँ के मूलनिवासी थे यह बात अब तक कोई सिद्ध नहीं कर पाया व इसके बिना ही यह राग अवश्य अलापा जाता रहा है कि आर्य बाहर से आये थे। इस भ्रामक अवधारणा ने भारतीय संस्कृति का बड़ा अहित किया है। भारतीय जनमानस में परस्पर द्वेष, आर्य-अनार्य विचार एवं दक्षिण-उत्तर की भावना उत्पन्न करने वाला यह विचार, तात्कालिक राजनैतिक लाभ हेतु विदेशियों एवं विधर्मियों द्वारा योजनाबद्ध प्रचारित किया गया है।