राम भारत के जन-जन के लिये एक संबल है, एक समाधान है, एक आश्वासन है, निष्कंटक जीवन का, अंधेरों में उजालों का। भारत की संस्कृति एवं विशाल आबादी के साथ-साथ दर्जनभर देशों के लोगों में यह नाम चेतन-अचेतन अवस्था में समाया हुआ है। यह भारत जिसे आर्यावर्त भी कहा गया है, उसके ज्ञात इतिहास के श्रीराम प्रथम पुरुष एवं राष्ट्रपुरुष हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र को उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूर्व तक जोड़ा था। दीन-दुखियों और सदाचारियों की दुराचारियों एवं राक्षसों से रक्षा की थी। सबल आपराधिक एवं अन्यायी ताकतों का दमन किया। सर्वोच्च लोकनायक के रूप में उन्होंने जन-जन की आवाज को सुना और राजतंत्र एवं लोकतंत्र में जन-गण की आवाज को सर्वोच्चता प्रदान की। इस मायने में श्रीराम मन्दिर लोकतंत्र का भी पवित्र तीर्थ होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अयोध्या में राम जन्म स्थल पर मंदिर की आधारशिला रखने के साथ ही हमारे इतिहास का एक कटुता भरा और कष्टदायक अध्याय समाप्त हुआ। कई शताब्दियों की प्रतीक्षा पूर्ण हुई। लम्बे संघर्ष, असंख्य बलिदानों और अनावश्यक रूकावटों के बाद पूरी मर्यादा के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्म स्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। मंदिर का निर्माण भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किया जा रहा है तब तक दूसरे पक्ष की हर कानूनी अड़चन का धैर्य से सामना किया गया। और यह भी सराहनीय है कि कोई विजयोल्लास नहीं, कोई घमंड नहीं, किसी के प्रति नफरत नहीं और पूरी सद्भावना के साथ मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व, विशेष तौर पर प्रधानमंत्री मोदी, का इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम में गौरवपूर्ण व्यवहार प्रशंसनीय है। भाषा और भाव दोनों में पूर्ण संयम और गरिमा है। योगी आदित्य नाथ का भी कहना है, ‘‘यह अवसर उल्लास, गौरव, आत्म संतोष तथा करुणा का है।’’ किसी पर कोई कटाक्ष नही।
कितना अच्छा होता कि कानूनी लड़ाई लड़ने वाले मुस्लिम नेता हिन्दुओं के जख्मों और पीड़ा को समझते। अगर मुस्लिम नेता सहयोग देते तो देश का इतिहास ही और होता। सही सोच वाले बहुत मुसलमान है जो समझते थे कि यह आम जगह नहीं, हिन्दुओं के लिए सबसे श्रद्धेय स्थल है और यह कानूनी लड़ाई व्यर्थ है पर ऐसे लोग बेबस थे।
एक मुस्लिम बन्धु का कहना था कि उनके परिवार ने 501 दीपक जलाए। ‘क्योंकि राम लला हमारे भी पैगम्बर हैं’।ऐसे सही सोच वाले मुसलमान बहुत हैं। अल्लामा इकबाल ने भी लिखा था,
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज
अहल-ए-नजर समझते हैं इसको इमाम-ए-हिन्द
पर अफसोस है कि कई लोग अभी भी राम मन्दिर के निर्माण को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे। शरद पवार का फिजूल बयान है कि इस से कोरोना तो नहीं रुकेगा। किसने दावा किया कि इससे कोरोना रुक जाएगा? ऐसे लोग गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति की खुशी में साझेदार क्यों नहीं बन सकते? पर ऐसे लोगों से नाराजगी नही क्योंकि आजाद देश में सबको अपनी सोच का अधिकार है। श्री राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के महासचिव चंपत राय का कहना उचित है, ‘‘राम मंदिर आन्दोलन का विरोध करने वाले देश विरोधी नहीं देश भक्त लोग हैं। सबके अपने अपने कारण होते हैं।’’
सबसे मुखर अपनी आदत के अनुसार सांसद असदुद्दीन ओवैसी हैं। भारत जैसे विविधा पूर्ण देश में ओवैसी जैसी आवाज की अपनी जगह है लेकिन अफसोस की बात है कि राम मन्दिर के मामलों में उन्होंने बिलकुल नकारात्मक रवैया अपनाया है। ऐसे नेता अपनी चैधराहट के कारण अपने समुदाय को संकीर्णता में बंद रखते हैं। क्या बेहतर होता कि उनके जैसा नेता राम मंदिर के निर्माण का स्वागत करता। वह देश का माहौल बदल देते और उनका सम्मान बढ़ता। उलटा उन का कहना था कि शिलान्यास करना, ‘‘प्रधानमंत्री द्वारा ली गई शपथ का उल्लंघन करने जैसा होगा।’’ नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री ही नहीं इंसान भी है जिनकी अपनी आस्था है। न ही राम मंदिर का निर्माण सरकारी पैसे से हो रहा है। जवाहरलाल नेहरू धार्मिक नहीं थे पर वह भी अपनी वसीयत में लिख गए थे कि उनकी कुछ अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाएं। इंदिरा गाँधी मंदिर मंदिर दर्शन के लिए जातीं थी। किसी ने आपत्ति नहीं की फिर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शिलान्यास पर आपत्ति क्यों? धर्म और आस्था निजी मामलें हैं जब तक सरकारी दखलंदाजी न हो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अमेरिका का राष्ट्रपति बाईबल पर हाथ रख कर शपथ लेता है किसी को कोई समस्या नहीं।
ऐसा ही एक मामला आजाद भारत के इतिहास में पहले भी उठा था। अपनी दौलत के लिए मशहूर सोमनाथ मंदिर पर मुस्लिम हमलावरों ने बार बार हमले किए, उसे नष्ट किया और इसे लूटा था। स्वामी विवेकानन्द जो बहुत उदार थे ने भी लिखा था, ‘‘मंदिर के बाद मंदिर विदेशी हमलावरों ने नष्ट कर दिए थे। लेकिन उनके जाने के बाद उनका फिर निर्माण किया गया’’। सबसे कुख्यात महमूद गजनी था। मुस्लिम इतिहासकार बताते हैं कि 1024 में सोमनाथ की लड़ाई में 50000 हिन्दू मारे गए थे। सुल्तान ने खुद शिवलिंग नष्ट किया और भारी मात्रा में सोना और बहुमूल्य चीजें ले गया। हर विध्वंस के बाद इसका निर्माण किया गया लेकिन औरंगजेब ने इसे बिलकुल नष्ट कर दिया। आजादी के बाद सरदार पटेल ने सितम्बर 1947 में इस स्थल की यात्रा की थी और इसके पुनर्निर्माण में मदद का वायदा किया था। जिम्मेवारी उन्होंने के एम मुंशी पर डाली थी। महात्मा गाँधी ने भी अपनी सहमति दी थी केवल एक शर्त थी कि इस के पुनर्निर्माण पर सरकारी पैसा नहीं लगेगा।
सोमनाथ मंदिर को लेकर उस समय विवाद खड़ा हो गया जब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद मंदिर के उद्घाटन के लिए जाने के लिए तैयार हो गए पर प्रधानमंत्री नेहरू को इस पर अत्यन्त आपत्ति थी कि यह राष्ट्रपति का काम नहीं है। एक पत्र में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को लिखा, ‘‘आपको सोमनाथ मंदिर के भव्य उद्घाटन में हिस्सा नहीं लेना चाहिए३ इसमें दुर्भाग्यवश कई उलझाव है’’। नेहरू का मानना था कि बड़े अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर पूजा या आस्था स्थलों में नहीं जाना चाहिए। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने जवाहरलाल नेहरू की राय की अनदेखी करते हुए मई 1951 में इसका उद्घाटन किया। तब तक दोनों गाँधीजी और सरदार पटेल का देहांत हो चुका था।
कौन सही था? राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ? इतिहासकार इस पर बँटे हुए हैं। हमारी गलती यह है कि हम पुरानी घटनाओं को आज के तराजू में तोलते हैं। राजेन्द्र प्रसाद यह संदेश देना चाहते थे कि भारत आजाद है और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए तत्पर हैं। नेहरू का ध्यान देश के नव निर्माण पर था। उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा था, ‘‘निजी तौर पर मैं समझता हूँ कि सोमनाथ में बड़ी इमारत बनाने का यह समय नहीं है। इसे आराम से और अधिक प्रभावी ढंग से बाद में किया जा सकता है।’’ नेहरू का मानना था कि देश को दूसरे मामलों पर ध्यान देना चाहिए मंदिर पर जोर देने का यह सही मौका नहीं जो बात राजेन्द्र प्रसाद ने नहीं स्वीकारी। मेरा मानना है कि देश का सौभाग्य था कि उस समय ऐसे लोग थे जो वैचारिक मतभेद रखते हुए भी एक दूसरे की इज्जत करते थे। देश ऐसे परस्पर विरोधी विचारों से समृद्ध होता है।
दुर्भाग्यवश हमारे इतिहास में यह बार बार होता आया है। दुनिया के अजायबघर हमारे खजाने और बहुमूल्य कलाकृतियों से भरे हुए हैं जिन्हें देख कर बहुत कष्ट होता है। 5 अगस्त 2020 को हमने गुलामी के एक अध्याय को समाप्त कर दिया हैं। यह अच्छी बात है कि बाबरी केस के पक्षधर इकबाल अंसारी को राम मंदिर के भूमि पूजन का न्योता भेजा गया। इस से अच्छा संदेश गया है। कटुता भुला कर मर्यादा में रहते हुए हमें यह राष्ट्रीय मंदिर बनाना है, सबका साँझा।
सोमनाथ में राष्ट्रपति प्रसाद ने जो भाषण दिया वह किसी भी राष्ट्रपति द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर दिया शायद सबसे महत्वपूर्ण भाषण है। सोमनाथ को राष्ट्रीय विश्वास का प्रतीक बताते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अपनी राख से एक बार फिर उदयमान सोमनाथ मंदिर दुनिया को यह घोषणा कर रहा है कि जिसके लिए लोगों के दिलों में अपार श्रद्धा और प्रेम है उसे कोई ताकत या व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता।’’ पर साथ उन्होंने यह भी कहा,
‘‘जिस तरह सब नदियाँ सागर में जाकर मिल जाती हैं उसी तरह विभिन्न धर्म इंसान को भगवान तक पहुँचाने में मदद करते हैं।’’ यही बात पहले स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धार्मिक संसद में कही थी। यह हमारे विश्वास, दर्शन और सिद्धांतों का निचोड़ है जिस से हम पुरातन काल से जुड़े हैं पर जिसे हमारे कई नेता कई बार भूल जाते हैं।
(साभारः अंतरताना)
राजेश सैनी